अयोध्या विवाद का आगाज़ तो वस्तुत: हुआ था एक सौ पच्चीस वर्ष पहले, जबकि सन् 1885 में जबकि निर्मोही अखाडे़ के महंत रघुवर दास की ओर से एक याचिका फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज एफइए चैमियर की अदालत में दाखिल की गई। महंत रघुवर दास ने इस याचिका के तहत यह मांग की थी कि रामकोट पर विद्यमान बाबरी मस्जिद परिसर के अंदर मौजूद राम चबूतरे पर उनको राम मंदिर का निर्माण करने की इजाजत प्रदान की जाए। इस याचिका को जिला जज महोदय ने खारिज़ कर दिया, किंतु अपने फैसले में यह उल्लेखित किया कि जिस स्थान पर सन् 1528 में यहां पर बाबरी मस्जिद का निमार्ण किया गया, वस्तुत: पराम्परागत रूप से वह स्थान हिंदुओं का एक बेहद पवित्र स्थान रहा है। ब्रिटिश जिला जज चैमियर ने अपने ऐतिहासिक अदालती निणर्य में कहा कि यह तथ्य सुनिश्चत है कि मूलत: यह स्थान हिंदूओं का अत्यंत पवित्र स्थान है, किंतु 358 वर्ष के अंतराल के पश्चात इस मामले में यथास्थिति बनाए रखने के अतिरिक्त उनको कोई चारा नजर नहीं आता। अत: महंत रघुवर दास की याचिका को खारिज किया जाता है और इस स्थान पर राम मंदिर के निमार्ण की इजाजत कदाचित प्रदान नहीं की जा सकती।
आजादी के दौर में दिसंबर 1949 फैज़ाबाद में एक जिलाधीष महोदय थे श्रीमान के के नैय्यर साहब, उनके कार्यकाल में अयोघ्या नगरी के विवादित परिसर में भगवान राम, सीता ,लक्ष्मण ,हनुमान आदि की मूर्तियां प्रकट हुई। इन मूर्तियों की बाकायदा जिलाधीष के के नैय्यर की निगरानी में विवादित परिसर में प्राण प्रतिष्ठा की गई। रामचबूतरे पर मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा के विरोध में थाना अयोध्या में मुस्लिम वक्फ़ बोर्ड की ओर से एक एफआईआर दर्ज कराई गई जिसे सबइंस्पेक्टर राम दूबे ने लिखा। इस तरह यह मुकदमा अदालत में 1949 से दायर किया गया। अदालत ने विवादित परिसर को सीलबंद करके इस पर ताला डाल दिया। सन् 1986 में इस मुकदमे में एक महत्वपूर्ण मका़म तब आया जबकि फैजाबाद के वकील उमेशचंद्र पांडे की अपील पर जिला जज कृष्ण मोहन पांडे ने विवादित परिसर का सीलबंद ताला खोल देने का हुक्म जारी कर दिया। इसी मक़ाम से अयोध्या विवाद ने एक बेहद हिंसक संघर्षपूर्ण रूख इख़त्यार किया। सन् 1984 के आम चुनाव भाजपा ने बुरी तरह शिकस्त खाई थी और संसद की मात्र दो सीटों पर विजयी रही। भारतीय जनता पार्टी को एक ऐसा मुद्दा मिल गया, जिसका गहन संबंध हिंदुओं की प्रबल धार्मिक आस्था से रहा। राम जन्म भूमि पर राम मंदिर का निमार्ण करने के प्रश्न पर भाजपा के नेता लालकृष्ण अडवाणी ने सोमनाथ मंदिर से अयोध्या तक की एक रथयात्रा आरम्भ की। इस रथयात्रा ने संपूर्ण राष्ट्र में खतरनाक सांप्रदायिक उन्माद को जन्म दिया। फलस्वरूप हिंदू-मुस्लिम दंगों की एक नई इबारत इतिहास में दर्ज की गई, जिसमें तकरीबन दस हजार बेगुनाह लोग बेमौत मारे गए। भाजपा को इसका बेहद राजनीतिक फायदा हुआ। पार्टी राम मंदिर की लहर पर चढ़कर 1991 के आम चुनाव में केंद्र में मुख्य विरोधी दल बन गई और 1991 में ही उत्तर प्रदेश में सत्तानशीन हो गई। कल्याण सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हो गए। राममंदिर का निमार्ण एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। राम मंदिर के निर्माण आंदोलन बहुत तेज हो गया। रथयात्रा और कारसेवा के उन्मादी दौर में 23 जुलाई 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा स्पष्ट आदेश दिया की विवादित परिसर को कोई कारसेवा अंजाम नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने का तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण ने लिखित आश्वासन दिया। 6 दिसंबर सन् 1992 में अयोध्या के रामकोट पर मौजूद विवादित परिसर में क्या कुछ घटित हुआ, सब जानते हैं कि बाबरी मस्जिद के ढॉंचे को तहस नहस कर दिया गया। यहां पर सुप्रीम कोर्ट के हुक्म की धज्जियां उड़ गई। इसके बाद देश भर में दंगों का दौर फिर से शुरू हो गया।
ऐतिहासिक तौर पर अयोध्या नगरी को सदैव से ही भगवान राम की नगरी के रूप में जाना पहचाना जाता है। बाबरी मस्जिद को सन् 1528 में निर्मित किया गया, इस तथ्य से कोई पक्ष इंकार नहीं करता। किंतु क्या इसका निर्माण राम मंदिर को ध्वस्त करके किया गया था, जहॉं कि राम लला का जन्म हुआ था, बस यह विवादित तथ्य रहा। इस तथ्य को तय करने में अदालत ने 61 वर्षो का समय ले लिया। यह फैसला यदि जल्द ही हो गया होता तो राम मंदिर निमार्ण आंदोलन के कारण हुए दंगों में इतने सारे इंसानों का रक्त नहीं बहता। न्यायिक विलंब देश के लिए कितना भयावह सिद्ध हो सकता है, राम मंदिर बनाम बाबरी मस्जिद मुकदमा इसकी मिसाल बन चुका है। अब तो हाई कोर्ट ने फैसला सुना दिया है कि विवादित परिसर का कुल रकबा तकरीबन ढाई एकड़ का है, जिसको बाकायदा बराबर तीन हिस्सों में तक़सीम कर दिया जाए। एक हिस्से को जिसे गर्भग्रह कहा जाता है, जहां कि गुबंद के नीचे राम लला की मूर्तिया स्थापित रही हैं, उसे राममंदिर ट्रस्ट के हवाले कर दिया जाए। दूसरे हिस्से की मिल्कियत निर्मोही अखाडे़ को प्रदान की गई, जहां कि सीता रसोई आदि स्थल विद्यमान हैं। तीसरे भाग का मालिकाना हक़ सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड को होगा। संपूर्ण मामले पर हाई कोर्ट के तीनो न्यायाधीषों की तीन मुखतलिफ राय रही। बस एक तथ्य पर वे एकमत रहे कि विवादित परिसर के गर्भ गृह पर हिंदूओं का दावा साबित होता है। जस्टिस शर्मा की राय रही कि संपूर्ण परिसर पर राम मंदिर का ही है और विवादित ढांचे का निमार्ण राम मंदिर को ध्वस्त करके किया गया। अत: संपूर्ण परिसर पर हिंदूओ का हक़ साबित होता है। जस्टिस अग्रवाल ने सबसे लंबा फैसला लिखा और पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के साक्ष्यो को अदालत ने स्वीकार किया। जस्टिस एस यू खान ने कहा कि विवादित ढॉचे की तशकील राम मंदिर को ध्वस्त करके नहीं की गर्इ। जस्टिस अग्रवाल और जस्टिस खान ने विवादित परिसर को तीन हिस्सों में बराबर तक़सीम करने का फैसला सुनाया। अभी तक जो प्रतिक्रियाएं सामने आई उनमें सभी हिंदू संगठन अदालत के फैसले संतुष्ट प्रतीत हुए। उन्होने मुसलमानों को विवादित परिसर का एक हिस्सा देने पर कोई ऐतराज प्रकट नहीं किया। सेंट्रल मुस्लिम वक्फ़ बोर्ड अदालती निर्णय से संतुष्ट नहीं है अत: इसके बरखिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा।
अदालत को फैसला करने में बहुत वक्त़ लगा किंतु देर आए दुरूस्त आए चलो यही सही। इस मुकदमें में पक्षकार कोई भी क्यों न रहे, किंतु समस्त देश इसकी चपेट में आ गया। कानून के राज में और अदालत के निणर्य में विश्वास करोगे तो लोकतंत्र कायम रहेगा अन्यथा इसकी धज्जियां बिखर जाएगीं। सुप्रीम कोर्ट ने 23 सितंबर को मामले पर स्टे प्रदान करके फिर उसे फिर उसे त्वरित सुनवाई के पश्चात खारिज करके जैसी तेजी दिखाई अगर वैसी ही तीव्रता हाई कोर्ट एवं अन्य अदालते भी दिखलाएं तो भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका से निरंतर उठता जाता यकीन पुन: कायम हो सकता है। अब अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट की गति की परीक्षा होनी है, क्योंकि मामला सर्वोच्च अदालत के समक्ष पेश होगा ही।
(लेखक : पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)
(साभार : जनोक्ति डॉट कॉम, 04/10/
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