Tuesday, October 26, 2010

हमारे राजनेता सचमुच परिपक्व हो गए हैं?

यतीश राजावत  

अयोध्या पर आया फैसला और इसके बाद किसी तरह की हिंसा-मारकाट का न होना जनता और खासकर राजनीतिक दलों की नई भावनात्मक परिपक्वता का संकेत है। यह परिपक्वता क्षणिक है या स्थायी, इसका निर्णय समय करेगा।

फिलहाल यही लग रहा है कि नेताओं ने खुद को इसलिए रोक रखा है क्योंकि मीडिया की निगाह उनकी गतिविधियों पर है। आम जनता की धर्म-केंद्रित भावनाओं का राजनेता जिस तरह दोहन करते रहे हैं, उसे देखते हुए उनकी भावनात्मक परिपक्वता पर यह अविश्वास स्वाभाविक है।

सोशल इंटेलीजेंस पर अपनी पुस्तक में डेनियल गोलमैन ने कहा है कि हमारा मस्तिष्क सामाजिक स्थितियों में विशिष्ट तरीके से प्रतिक्रिया करने का आदी होता है। नेता एक खास तरह के व्यवहार का प्रदर्शन करें और समाज से भी उसकी उम्मीद करें, तो वह उन्हें जरूर मिलेगा।

जरूरत है कि हम नई पीढ़ी के नेताओं की ओर देखें और उनसे पूछें : क्या उनमें ऐसी परिपक्वता है; वे हमें बेहतरी की ओर ले जाएंगे या पतन की ओर? परिपक्वता हालांकि उम्र के साथ आती है, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, पिछले अनुभवों, ज्ञान व सीख के आधार पर आलोचनात्मक होने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जाती है।

हमारी सामाजिक बुद्धिमत्ता एक सीमा से आगे विकसित नहीं हो पाती। क्या हमें भाजपा के युवा नेतृत्व में ऐसे विकास के चिह्न् दिखाई देते हैं या हम उन्हें ऐसे विवादित मुद्दों की तलाश में देख रहे हैं, जो हमें उकसाएं लेकिन जरूरी नहीं कि बेहतर देश बनने में मदद करें? क्या नितिन गडकरी, शिवराजसिंह चौहान, सूर्य प्रताप शाही, अनुराग ठाकुर और वरुण गांधी जैसे युवा नेता हमें उच्च धरातल पर ले जाएंगे? यही सवाल कांग्रेस से भी पूछने की जरूरत है।

सचिन पायलट, जितेंद्र प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रिया दत्त, मिलिंद देवड़ा व अन्य युवा नेता क्या हमें विवेकपूर्ण रास्ते पर ले जा रहे हैं, जो आम लोगों के हित में है, या वे भी ऐसे विभाजक भावुक मुद्दे की खोज में हैं, जो थोड़े समय के लिए जनसमूह को जोड़ सके। इस यूथ ब्रिगेड के कर्णधार राहुल गांधी देशभर में युवा कांग्रेस की सदस्यता के लिए लोगों को आकर्षित करने का अभियान चला रहे हैं। लेकिन वह आज के युवाओं से कह क्या रहे हैं?

वे हमारे भावनात्मक अतीत को छेड़ रहे हैं या हमारे विवेकशील भविष्य को जगा रहे हैं? उनके अभियान के पीछे कोई रणनीति है या यह युक्ति भर है? अधिकांश नेता रणनीति और युक्ति में अंतर नहीं समझ पाते। हमारे धर्मग्रंथ इसकी अच्छी व्याख्या करते हैं।

जब विष्णु अपनी सवारी गरूड़ को रणभूमि का निरीक्षण करने को कह रहे थे, तब वह आगे के लिए विश्व दृष्टिकोण व रणनीतिक दृष्टि विकसित करने की कोशिश कर रहे थे। रणनीति और कुछ नहीं गरूड़ दृष्टि है। आपको अपने चारों ओर की घटनाओं पर विश्व दृष्टिकोण तैयार करना होता है।

व्यापक दृष्टिकोण यह होगा कि जनसमूह को कौन-सी चीज आकर्षित करेगी और समर्थकों की फौज कैसे तैयार होगी। क्या हम अपने युवा राजनीतिक नेताओं में ऐसी रणनीतिक विचारशीलता देख रहे हैं? क्या उनका विजन हमें प्रेरित करता है? क्या उनके पास विश्व में हो रही घटनाओं को लेकर गरूड़ दृष्टि है और क्या उनकी युक्तियां इसी विश्व दृष्टि से निकली हैं?

क्या बराक ओबामा या अन्य नेता में हमें यह गरूड़ दृष्टि दिखाई देती है। जब ओबामा ने अपने यस वी कैनचुनाव अभियान की रूपरेखा तैयार की थी, उन्होंने इन तीन शब्दों में अपने राष्ट्र की आकांक्षाओं को समाहित कर लिया था। लेकिन विष्णु जब सर्प की शैया पर विराजमान कृष्ण अवतार में होते हैं तब उनके पास सर्प दृष्टि है।

उनकी दृष्टि संकुचित है और सर्प की तरह वह केवल वही देख पाते हैं जो उनकी आंखों के आगे हो रहा है। यह युक्ति-केंद्रित तरीका है और हमारा राजनीतिक नेतृत्व आजकल इसी पर फोकस है। दुनिया की युक्तियों की उनकी समझ अच्छी है और वे युवा नेताओं को भी युक्तियां सिखा रहे हैं। अयोध्या फैसले पर उनकी प्रतिक्रिया सर्प दृष्टि की परिणति थी या गरूड़ दृष्टि की? रणनीतिपूर्ण थी या युक्तिपूर्ण? भावनात्मक थी या विवेकपूर्ण?

युक्तिपूर्ण फैसले सांप की तरह तेज और आक्रामक हो सकते हैं। ये अपनी सीमित दृष्टि के सामने आने वाली किसी भी वस्तु या हलचल पर हमला कर सकते हैं। यह घटनाओं के प्रति भावुक प्रतिक्रिया है और हमारे मस्तिष्क के भावनात्मक हिस्से से आती है।

रणनीतिक फैसले बेहतर समझ के साथ लिए जाते हैं और यह देश, संगठन या जनसमूह की दिशा को बदल या प्रभावित कर सकते हैं। जब बात समाज को गढ़ने की हो, तो ये फैसले मस्तिष्क के सामाजिक व विवेकशील हिस्से से आते हैं।

वैज्ञानिकों में अभी इस बात पर मतभेद है कि क्या हमारी सामाजिक बुद्धिमत्ता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता हमारे मस्तिष्क के भीतर जुड़ जाती हैं, ताकि हम अपने युक्तिपूर्ण फैसलों पर भी रणनीतिक तरीके से काम कर सकें। इन दिनों मानव मस्तिष्क को लेकर सबसे ज्यादा शोध इसी पर हो रहे हैं।

राजनीतिक नेतृत्व को और ऊंचे मानकों की आवश्यकता है। उन्हें सामाजिक बुद्धिमत्ता को रणनीतिक विचारों के साथ जोड़ने की जरूरत है। उनकी सामाजिक बुद्धिमत्ता उन्हें जनसमूहों को नेतृत्व प्रदान करने में मदद करेगी, जबकि उनकी रणनीतिक समझ उन्हें विरोधियों की युक्तिपूर्ण योजना से ऊपर उठने में मदद करेगी।

कुछ अवसरों पर वे युक्तिपूर्ण व भावनात्मक तरीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन उनके मूल समर्थक हमेशा ऊंचे लक्ष्यों की वकालत से ही आएंगे। जनता व्यक्तियों के पीछे नहीं चलती, वह उन विचारों के पीछे चलती है, जिनका समय आ गया है।

(लेखक : दैनिक भास्कर समूह के प्रबंध सम्पादक हैं)
(साभार : दैनिक भास्कर, 10/10/2010)

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