Tuesday, October 26, 2010

तेलंगाना को चाहिए अयोध्या जैसी कोशिश

राधा विश्वनाथ

आयोध्या के साठ साल पुराने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद में उच्च न्यायालय का फैसला आया, तो पूरे देश ने राहत की सांस ली। राहत की यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस मसले पर सांप्रदायिक तनाव पैदा हो जाने का एक इतिहास रहा है। इस बार भी तनाव भड़क जाने के अंदेशे इस कदर थे कि पूरे देश में रेड अलर्ट जारी कर दिया गया था। देश के बहुत से हिस्सों में स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए थे और सुरक्षा के इंतजाम इतने कड़े कर दिए गए थे, जितने कि पहले कभी नहीं रहे।


इलाहाबाद उच्च न्यायलय की लखनऊ पीठ ने भी इस बात का पूरा ख्याल रखा कि फैसला आने से पहले ही उसे लेकर अफवाहों का दौर न शुरू हो जाए। फैसले के बाद किसी तरह की जीत का जश्न न मनाया जा सके, इसके लिए प्रशासन ने भी तमाम पाबंदियां लगा दी थीं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने लोगों से सद्भाव बनाए रखने की अपील की थी। सभी राजनैतिक दलों ने अपने कार्यकर्ताओं को हिंसा से दूर रहने का संदेश भेजा था।अयोध्या फैसले के इस संदर्भ को आंध्र प्रदेश के मसले पर याद रखना जरूरी है। वहां तेलंगाना मसले पर भावनाएं और तापमान, दोनों ही आसमान पर हैं। इस पर फैसले के लिए पिछले साल के अंत में जस्टिस श्रीकृष्णा समिति बनाई गई थी, उसे दिसंबर में अपनी रिपोर्ट देनी है। राम-जन्मभूमि विवाद की तरह ही यहां अलग राज्य का मसला किसी भी हद तक भावनाओं को भड़काने का काम कर सकता है। पिछले एक दशक से यह मसला राजनीति की आंच पर उबल रहा है। पिछले दो विधानसभा चुनाव इसी मसले पर लड़े गए हैं। प्रदेश के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के छात्र इस विवाद के बड़े सूत्रधार रहे हैं और पिछले कुछ समय से एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता, जब इस मसले पर छात्रों के विरोधी गुटों में कोई झड़प न होती हो।


यह हिंसा सिर्फ परिसरों तक ही सीमित नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू के काफिले पर तेलंगाना कार्यकर्ता पथराव तक कर चुके हैं। जब वह महबूबनगर जा रहे थे, तो इस पथराव में उनके काफिले के कई लोग घायल भी हो गए। अब उनकी पार्टी तेलुगू देशम के पास इसे लेकर दो मुद्दे हैं। एक यह कि राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होती जा रही है और दूसरा यह कि जब वे इस पथराव के बाद किसी तरह हैदराबाद पंहुचे, तो उन्हें थाने में एफआईआर नहीं लिखाने दी गई।


अब यह मसला विधानसभा की विशेषाधिकार समिति के पास है और वहां राजनैतिक समीकरण बदल रहे हैं। कुछ महीने पहले तक तेलंगाना राज्य समिति के लिए कांग्रेस ही मुख्य खलनायक थी। समिति के अध्यक्ष चंद्रशेखर राव और अन्य वरिष्ठ नेताओं का अरोप था कि राज्य के विभाजन की मांग कांग्रेस ही रोक रही है। वे अलग-अलग क्षेत्रों के कांग्रेस नेताओं के मतभेद की बातें करके उसका मजाक भी उड़ाया करते थे। ऐसे मतभेद तेलुगू देशम में भी हैं लेकिन तब वह इस मसले से किनारा कर रही थी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। अब तेलुगू देशम और तेलंगाना राज्य समिति आमने-सामने हैं। कांग्रेस चुप्पी साध रही है। तेलुगू देशम इस बात से परेशान है कि बड़ी संख्या में उसके कार्यकर्ता तेलंगाना समिति में चले गए हैं। इससे नाराज नायडू ने अब तेलंगाना समिति और उसके नेता चंद्रशेखर राव पर निशाना साधना शुरू कर दिया है। उनकी पार्टी राव को अवसरवादी कह रही है और उन पर अपने परिवार को आगे बढ़ाने का आरोप लगा रही है। लेकिन ऐसा क्या हो गया कि समिति ने कांग्रेस को छोड़कर तेलुगू देशम पर निशाना साधना शुरू कर दिया है। और चंद्रशेखर राव ने पिछले दिनों विजयवाड़ा के कांग्रेस सांसद एल राजगोपाल की काफी तारीफ भी की। राजगोपाल कभी कांग्रेस में राव के सबसे बड़े आलोचकों में से थे। इससे ये अटकलें भी लगने लगी हैं कि तेलंगाना के मसले पर कांग्रेस और राव में कोई गुप्त समझौता हो गया है। उधर तेलंगाना को राज्य का दर्जा दिए जाने का एक और मोर्चा खुल गया है। इसके नेता माओवादी समर्थक गद हैं, जिन्होंने तेलंगाना प्रजा समिति का निर्माण किया है। उन्होंने इसकी स्थापना का मकसद राव और उनकी समिति से आंदोलन का नेतृत्व छीनना बतलाया।


राज्य में चल रहीं इस तरह की सारी गतिविधियां काफी महत्वपूर्ण हो गई हैं। खासतौर पर इसलिए, क्योंकि ये कृष्णा समिति द्वारा राज्य सरकार को रिपोर्ट सौंपने से कुछ ही हफ्ते पहले हुई हैं। और ये आग में घी डालने का काम कर सकती हैं। अब यह जरूरी है कि केंद्र और राज्य मिलकर हालात को बिगड़ने न दें।

(लेखिका : वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(साभार : दैनिक हिन्दुस्तान, 8/10/2010)

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