Saturday, October 30, 2010

लौकिक व अलौकिक के अद्भुत समन्वय हैं राम

डॉ. दयाकृष्ण विजय वर्गीय ‘विजय’

भगवान राम को जहाँ महाभारतकार वेद व्यास ने गीता में वीरता के विग्रह के रूप में देखा है, वहीं तुलसी ने उन्हें परब्रह्म के अवतार के रूप में पहचाना है। लोकमानस उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में जानता है। जो परब्रह्म के अवतार को स्वीकार नहीं करते वे उन्हें एक महापुरुष के रूप में उद्धृत करते हैं।

राम नाम भगवान दाशरथि राम के अवतरण के पूर्व भी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता था। कारण, राम शब्द की व्युत्पत्ति है। राम अर्थात सबमें रमा हुआ। भारतीय मनीषा ने इसी हेतु से राम नाम को परब्रह्मवाची स्वीकारा है। अध्यात्मवादी जानते हैं कि यह पञ्चभूता प्रकृति तब तक निष्क्रिय है जब तक इसका संस्पर्श उस एकमेव परमचेतन सत्ता में नहीं होता है। यह सृष्टि आण्विक है। प्रत्येक अणु, परमाणु अपने भीतर सत्, रज, तम् नाम के तीन तत्व धारण किए हुए है, जिसे स्थूल भौतिकता के स्तर पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश शास्त्रकारों ने कहकर, त्रि-देवों की भारतीय सांस्कृतिक एकता का ऐतिहासिक पक्ष प्रस्तुत किया है। जब प्रकृति पराशक्ति के संसर्ग में आती है तब उसका अणु-परमाणु चालित हो उठता है। इन्हीं त्रि-देवों में एक सर्जक तत्व है, दूसरा पालक तथा तीसरा विध्वंसक है। प्रकृति की इसी त्रि-गुणात्मक शक्ति को देख मूर्ख चार्वाक चेतन सत्ता की उपस्थिति अनावश्यक मान उसे नकारते हैं। पटरी पर इंजन दौड़ता है तो यह लोहे का गुण नहीं है। उस ऊर्जा शक्ति का गुण है जो उसे चालित रखता है। राम नाम भारतीय अध्यात्म की ऊर्जा है, जो दृश्यमान जगत को चालित रखने वाली शक्ति के रूप में स्वीकृत है।

हम भारतीय अध्यात्म का इतिहास उठाकर देख लें। आशुतोष शिव ने जिस नाम का जप किया वह राम नाम ही है। सिद्धों ने जिसे “अलख निरञ्जन” कहा, वह राम नाम ही है। गोरखनाथ का पुरा पंथ राम नाम ही जपता रहता है। संतों की वीणी ने तो राम-राम जपते भारतीय भक्ति साहित्य को एक नया आयाम दिया है। संत साहित्य चाहे निर्गुण हो चाहे सगुण हो, दोनों ने राम नाम को ही अपनी शक्ति का आधार बनाया है। जुलाहे कबीर तक ने राम नाम को ही प्रचारित किया है। अपने राम की बहुरिया कहकर उस परम चेतन सत्ता को स्मरण किया है। राम ही ओम् है, प्रणव है, राम ही विष्णु है, कृष्ण है। रामानन्द ने राम नाम का ही मन्त्र ही विश्व को दिया है। इस तरह राम भारतीय आत्मा का परमात्मा हैं, जिसे पाने के लिए ही सारी यौगिक साधनाएं हैं। यह परम तत्व प्रकृति से संसर्गित होकर भी प्रकृति से पृथक है, प्रकृति नहीं है। इस आध्यात्मिक खोज को भारतीय दर्शन का एक चमत्कार कह सकते हैं।

महर्षि वशिष्ठ जो राजा दशरथ के कुल पुरोहित थे, के अवतरण के सत्य को स्वीकारते थे या नहीं, मैं नहीं जानता। अपने अनुमान से कह सकता हूँ कि वे एक अच्छे ज्योतिषि थे, जन्मपत्रिका के विश्वासी अध्येता थे। जब उन्होंने राम के जन्म नक्षत्रों को पढ़ा तो उन्होंने राम की जन्मपत्रिका में वे सब प्रभावकारी ग्रह दिखे, जो उन्हें लोकप्रिय तथा जन-जन का गलहार बना सकते थे। राम नाम की तरह दाशरथि भी जन-जन के हृदय में सदा रमे रहेंगे। इसी भाव से उन्होंने दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र का नाम राम रखा। इस नामकरण में प्रभु राम के साथ दशरथ पुत्र राम का तुल्यता भाव ही निहित है, स्पष्ट है।

दाशरथि राम कब प्रभु राम हो गए, कब मर्यादापुरुषोत्तम परब्रह्म हो गए, महापुरुष राम परम चेतन सत्ता के अवतरण हो गए, यह स्पष्ट तो नहीं कह सकते पर इतना अवश्य कह सकते हैं, महाभारतकार जिन राम को वीरता का विग्रह कहता है वही अध्यात्म रामायण लिखकर राम के प्रतीक से अध्यात्म का निरुपण करता है। कृष्ण को राम की भाँति षोडश कलावतार रूप में भागवत में प्रस्तुत कर अद्वैत का निरूपण करता है। इससे पूर्व मैं ऐसा कोई ग्रंथ नहीं देखता हूँ जो राम को आध्यात्मिक प्रतीक बनाकर कुछ कहता हो। वैसे ऋग्वेद में राम नाम आया है, ऐसा विद्वान कहते हैं। लेकिन वह दाशरथि राम के लिए आया हो ऐसा मैं नहीं मानता। वह रमे होने के अर्थ में ही हो सकता है।

इसे संयोग कहें या कुछ और, दाशरथि राम ने अपने चरित्र से विश्व के सम्मुख एक समग्र भारतीय संस्कृति का एक विराट रूप ही प्रस्तुत कर दिया है। तुलसी के शब्दों में वे करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले हैं। शरीर से बलिष्ठ हैं, प्रकृति से उदार, क्षमाशील तथा शरणागत वत्सल हैं। उन्होंने किसी भी परिस्थिति में मानव मर्यादा का अतिक्रमण या उल्लंघन नहीं किया है। वे आदर्श आज्ञापालक पुत्र हैं, विनीत शिष्य हैं, भ्रातृत्व के जीवंत रूप हैं, वे माताओं को सुख देने वाले हैं। ऋषियों के यज्ञ के रक्षक हैं, सनातन मर्यादाओं के पोषक हैं तथा आदर्श मानवीय गुणों के धारक ही नहीं, शौर्य-साहस एवं अदम्य जिजीविषा के अनन्य उदाहरण हैं। उन्होंने कर्मभूमि से जीवन में कभी पीठ नहीं दिखाई। वे अतुलनीय पराक्रम, अवर्णनीय तेजस्विता, अपरिमित शील, दुर्दम्य शक्ति के धनी ही नहीं थे, सौन्दर्य में साक्षात कामदेव थे। दाशरथि राम के ऐसे उज्जवल चरित्र से राम नाम परब्रह्म का पर्याय ही न रहकर, मर्यादा परुषोत्तम का साक्षात प्रतीक बन गया।

दाशरथि राम पिता की आज्ञा मान यौवराज्य छोड़ चौदह वर्ष के लिए दृढ़ता पूर्वक वनगमन कर जाते हैं। ऐसा आज्ञापालक पुत्र दूसरा हो सकता है ? राजपुत्र होकर भी निषादराज गुह को गले से लगाते हैं। केवट को उतराई देते हैं। उन्हें सीता का पता देने वाले जटायु का वे आभार ही नहीं मानते, उसका वैदिक संस्कार स्वयं करते हैं। शबरी के जूठे बेर खाते हैं। बंदर व भालुओं के साथ आत्मीयता प्रकट करते हैं। सीता को ले आने के बाद लोकमत की चिंता कर उनका परित्याग कर देते हैं। अश्वमेघ में पत्नी की अनिवार्यता रहते दूसरा विवाह ना कर स्वर्ण मोती बनवाकर रखते हैं, ऐसा आदर्श व्यक्तित्व दुर्लभ है।

गाँधी जी की रामराज्य की कल्पना, मृत्यु समय हे राम कहकर उनका प्राण त्यागना इस बात का प्रमाण है कि राम गाँधी जी के रोम-रोम में तो थे ही, राम लोकमानस में उसी भाँति विराजित हैं। तुलसी के रामचरितमानसे के बाद दाशरथि राम मात्र महापुरुष न रहकर जन-जन की आस्था के प्रतीक बन गए। लोकजीवन, दाशरथि राम ने ही उस विराट चेतन सत्ता के दर्शन कर रहा है। सगुण भक्ति आलंबन की अपेक्षा रखती है। दाशरथि रामभक्ति के आलंबल बन गए। आज कोटि-कोटि जन दाशरथि राम को ही परम ब्रह्म मानकर उनका उसी रूप में नाम जप कर रहा है। उनके आदर्श चरित्र को अपनी संस्कृति का विशिष्ट उपादान मान, उसपर आचरण कर रहा है। अपने राम का प्रतिरूप बनाना चाह रहा है।

दाशरथि राम का सांस्कृतिक राज्य विस्तार दक्षिण-पूर्वी देशों तक इतना सघन था कि वहाँ की प्रजा धर्मान्तरण करने के पश्चात भी अपने गौरवपूर्ण अतीत से मुख नहीं मोड़े हैं। थाई देशों में आज भी अयोध्या है। इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा में आज भी वहाँ का मुसलमान रामलीला देखना और खेलना पसंद करता है, यह राम के प्रभाव की चिरंतता को प्रकट करता है।

राम ने अपने व्यक्तित्व से सुदूर उत्तर के कैकय प्रदेश से लंका को जोड़ा, मिथिला से अयोध्या को जोड़ा। उत्तर की संस्कृति को दक्षिण से, नेपाल की संस्कृति से, अवध की संस्कृति से जोड़ा। हजारों साल हो जाने के बाद भी दाशरथि राम आज लोकमानस में परब्रह्म के रूप में विराजमान हैं। वे नहीं भुलाए जा सकते। वे अधर्मियों के अद्धारक, संतों के प्रतिपालक तथा दुष्टों के विनाशक के रूप में सदा जाने ही नहीं जाते रहेंग, आराधे भी जाते रहेंगे। उनका नाम उस परब्रह्म के नाम के साथ ऐसा घुलमिल गया है कि उसे अब पृथक नहीं किया जा सकता। वे व्यक्ति भी हैं, परब्रह्म भी हैं। वे लौकिक भी हैं अलौकिक भी। किसी भी रूप में हम आराधें, वे हमारे अपने हैं।
(लेखक : वरिष्ठ साहित्यकार हैं)



(साभार : http://www.vhv.org.in, 29 अक्टूबर, 2010)

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