Tuesday, October 26, 2010

खतरनाक खेल

स्वप्न दासगुप्ता


यह विचार कि भारत टकराव और उथलपुथल के दौर से उबरकर आगे बढ़ रहा है, वास्तव में आलसी और सीधे-सरल लोगों के दिमाग की उपज है। इसमें जरा भी सच्चाई नहीं है कि भारत ने पिछले 25 सालों में अपनी प्राथमिकताओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है। पिछले दिनों अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं। केंद्र व राज्य सरकारों को खतरा था कि फैसले के बाद देश में उपद्रव और दंगे हो सकते हैं, किंतु न फैसले के तुरंत बाद और न ही कुछ दिनों बाद ही ऐसा कुछ हुआ। टीवी स्टूडियो में कुछ हल्लागुल्ला हुआ और आक्रोश भरी प्रतिक्रियाएं भी दिखीं, लेकिन यह सब केवल तमाशे तक सीमित रहीं। कुछ मुस्लिम इलाकों में गुस्से के उबाल की खबरें और कुछ धर्मगुरुओं के भड़काऊ बयान भी आए, किंतु अगर कुछ असंतोष था भी तो वह बाहर तक नहीं आया।
 
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस जटिल फैसले पर कोई बड़ी प्रतिक्रिया सामने न आने के पीछे तीन कयास लगाए जा रहे हैं। पहला यह कि शायद लोगों की इस मुद्दे में दिलचस्पी ही नहीं रह गई थी। एक ऐसे देश में जहां इतिहास बोध बेहद क्षीण है, यह स्पष्टीकरण सच का आभास देता है। दूसरा आकलन यह है कि हो सकता है कि गृह मंत्री की सलाह पर लोगों ने फैसले के नतीजों पर गौर करते हुए हुड़दंग से दूर रहने का फैसला लिया हो। हर बात पर अति उत्साह में आने वाले इस देश में यह अविश्वसनीय व्याख्या है। अंतिम संभावना यह है कि देश भर में यह धारणा थी कि न्यायालय का फैसला सही है। 2.77 एकड़ जमीन को तीन भागों में बांटना उचित, न्यायोचित है और एक ऐसी चीज पर निर्भर है, जिसे कॉमन सेंस कहा जाता है।
 
यह धारणा कि उच्च न्यायालय के फैसले को देश में व्यापक समर्थन हासिल है, इस विचार की काट कर रही है कि बौद्धिक तबके को फैसला पसंद नहींआया। शाहबानो मामले में मौलवियों और कुछ मंत्रियों के विरोध के बाद उच्चतम न्यायालय के फैसले को रद्दी की टोकरी में फेंकने से मुट्ठी भर लोगों में यह धारणा घर कर चुकी है कि अदालत के फैसले को कभी भी पलटा जा सकता है।
30 सितंबर को चार बजे तक जो लोग कानून की सर्वोच्चता और भारतीय संविधान की प्रशंसा के कसीदे काढ़ रहे थे वे अचानक तब पलट गए जब पता चला कि सुन्नी वक्फ बोर्ड की याचिका खारिज हो गई है और अदालत ने रामलला के ईश्वरीय रूप को स्वीकार करते हुए उन्हें अपनी जन्मभूमि पर अधिकार दे दिया है। फैसले को पंचायती और बहुमत के दंभ की पुष्टि बताते हुए उन्होंने इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया। इसे इस रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है कि इसने न्यायिक प्रक्रिया में मुस्लिम विश्वास को डिगा दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि फैसले के कारण मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिकों का अहसास हो रहा है। यह समझ में आता है कि जो अनुकूल फैसले का अनुमान लगाए हुए थे वे इससे निराश होंगे। विचित्र यह है कि असंयमित, भड़काऊ और अभद्र भाषा का इस्तेमाल सुन्नी वक्फ बोर्ड या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से नहीं हुआ। हैदराबाद की रजकर पार्टी के सांसद को छोड़कर जो पहले से ही लोगों को भड़काने में यकीन रखते हैं, आपे से बाहर अगर कोई हुआ तो वह है भारत का उदारवादी तबका।
 
भावनाओं का कुछ विस्फोट तो संभावित था। जिन्हें अरुण शौरी ने 'विख्यात इतिहासकार' की उपाधि दी थी उनका उच्च न्यायालय के फैसले पर आंदोलित होना समझ में आता है, क्योंकि भारतीय पुरातात्विक सर्वे के साक्ष्यों के आधार पर उच्च न्यायालय ने उनके 'वहां कभी मंदिर न होने' के विचार के खिलाफ फैसला दिया था। उनका भारत के अतीत का एकमात्र प्रवक्ता बनने का जोरदार प्रयास समझ में आता है। अगर अदालत उनके फतवों को मान्यता प्रदान नहीं करती तो यह बस समय का फेर था कि उनके भर्राए सुर में सुर मिलाते हुए अन्य इतिहासकार इस नाजुक मामले पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए हाजिर हो जाएंगे। इसके अलावा, अब तक सेक्युलरिस्ट उदारवाद के सम्मानजनक चेहरे रहे कुछ लोग इस पटकथा पर लाल-पीले हो गए। उनका यह मानना था कि हिंदू और मुस्लिम नेतृत्व किसी न किसी समझौते पर पहुंच जाएगा और उन्हें अल्पसंख्यकों के बारे में बोलने का मौका मिल जाएगा।
 
कुछ टीवी चैनलों के सौजन्य से सेक्युलर उदारवादियों ने फैसले के खिलाफ मुस्लिम राय को लामबंद करने का प्रयास किया और इसके लिए समुदाय की प्रत्यक्ष नाराजगी को इस्तेमाल करते हुए सरकार पर दबाव डाला कि वह सुप्रीम कोर्ट को प्रभावित करते हुए अनुकूल फैसला दिलवाए। लब्बोलुआब यह कि वे इतने सशक्त बौद्धिक वातावरण का निर्माण करने में जुट गए कि उच्चतम न्यायालय उच्च न्यायालय के फैसले को बदलने को मजबूर हो जाए। टकराव के ठेकेदार उकसाऊ और भड़काऊ कूटनीतियां अपना रहे हैं। एक सेक्युलर महिला ने बयान दिया कि भारतीय राष्ट्र का मुसलमानों के साथ कोई सामाजिक संबंध नहीं है। यह ऐसा बयान है जो आतंकवाद को वैधानिक दर्जा देने की दलील के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर उन्हें सामुदायिक दबाव का सहारा मिल जाता तो यह निश्चित तौर पर अलगाव की तरफ ले जाता। पेशेवर सेक्युलरिस्ट मुसलमानों को फैसले का शिकार बताकर सांप्रदायिक फूट डालने का ताजा प्रयास कर रहे हैं। यह बहुत खतरनाक खेल है।
 
सौभाग्य से, भारत एक ऐसा देश है जहां कुछ भी लिखित में नहीं होता। यहां हमेशा स्पष्टता की तलाश में उलझे हुए और धुंधले प्रयास होते हैं। जीवन की कठिनाइयों से निपटने के लिए समझौते या यह कहें कि सामंजस्य की अथक तलाश जारी रहती है। सच है कि सौहा‌र्द्र का संतुलन अकसर गड़बड़ा जाता है, जैसाकि अयोध्या आंदोलन के दौरान हुआ, लेकिन कभी पूरी न होने वाली निश्चितता की इच्छा अल्पजीवी होती है। कानूनी अक्षरों को मेलमिलाप की भावना से जोड़कर उच्च न्यायालय ने समाधान का एक ढांचा खड़ा कर दिया है, जिससे सूत्र ग्रहण करने की आवश्यकता है। 

यह महत्वपूर्ण है कि मध्य भारत साहस और संकल्प के साथ गैर-विवादित मस्जिद और राम मंदिर की इच्छा का समायोजन और समझौता चाहता है। इसके लिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि सेक्युलरिस्टों के उकसावे में न आया जाए और भारतीयता की श्रेष्ठ भावनाओं में भरोसा कायम रखें। यही भावना नागरिकों के लिए शांति की आकांक्षा रखती है। अगर भाजपा और कांग्रेस अपनी भावनाओं पर काबू रखते हुए संयत व्यवहार बनाए रखें तो भारत जल्द ही अयोध्या विवाद का हल खोज लेगा।
 
(लेखक : वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
 
(साभार : दैनिक जागरण, 11/10/2010)

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