Tuesday, October 26, 2010

साक्ष्यों पर अनुचित सवाल

हृदयनारायण दीक्षित

राजनीतिज्ञ शातिप्रिय नहीं होते। शात जनमानस राजनीति की उर्वर जमीन नहीं होता। अशात नासमझ ही राजनेता के पिछलग्गू होते हैं। श्रीराम जन्मभूमि विवाद के न्यायिक फैसले के बावजूद राष्ट्र शात रहा। थोक वोट बैंक राजनीति में भूचाल आया। न्यायालय के फैसले पर भड़काऊ टिप्पणिया आईं। लोग नहीं भड़के तो न्यायालय पर आस्था आधारित फैसला देने के आरोप जड़े गए। लगभग 8500 पेज के फैसले को विवेकसम्मत ढंग से पढ़ने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। तीन न्यायमूर्तियों के सर्वसम्मत फैसले ने श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को सही ठहराया बावजूद इसके भड़काऊ राजनीति ने कथित बाबरी मस्जिद का पिंड नहीं छोड़ा। गृहमंत्री चिदंबरम ने बिना प्रसंग ही कथित बाबरी ध्वंस के गुनहगारों पर गुस्सा उतारा। छद्म सेक्युलर न्यायिक फैसले को आस्था आधारित बता रहे हैं। कोर्ट आदरणीय संवैधानिक संस्था है। न्यायिक कार्यवाही के संचालन, विचारण और निर्णय की सुपरिभाषित प्रक्रिया है। तीनों न्यायमूर्तियों ने अपने निष्कर्र्षो में तमाम तथ्यों, साक्ष्यों और पुरानी नजीरों को ही आधार बनाया है। बावजूद इसके कोर्ट के फैसले पर अपमानजनक टिप्पणिया जारी हैं। न्यायालय का निर्णय तथ्यों, साक्ष्यों और विधिक प्रावधानों से भरापूरा है।

न्यायमूर्तियों और न्यायालय पर आस्थावादी होने का आरोप राजनीतिक बयानबाजी है। न्यायमूर्ति एसयू खान के निष्कर्ष गौरतलब हैं मस्जिद के निर्माण के लिए किसी मंदिर को नहीं तोड़ा गया था। इसका निर्माण मंदिर के अवशेषों पर किया गया था। इसकी कुछ सामग्री का निर्माण मस्जिद निर्माण के लिए किया गया। साक्ष्यों से यह साबित नहीं होता कि निर्मित हिस्से समेत विवादित परिसर पर बाबर या जिसके आदेश पर मंदिर का निर्माण किया गया उसका अधिकार था। न्यायमूर्ति ने बाबर या अन्य किसी मस्जिद निर्माणकर्ता के मालिकाना अधिकार के साक्ष्य नहीं पाए। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के निष्कर्ष हैं, 'इसका निर्माण बाबर ने कराया या उसके कार्यकाल में बना इसके प्रमाण नहीं मिले।' लिखा है कि सबूतों के अभाव में कहना मुश्किल है कि विवादित निर्माण कब हुआ लेकिन यह स्पष्ट है कि यह अवध क्षेत्र में जोसेफ टिंफेथलर के दौरे से पहले किया गया। टिंफेथलर आस्ट्रिया के ईसाई पादरी थे। उन्होंने अयोध्या यात्रा का वर्णन किया अजुदिया (अयोध्या) प्राचीन शहर है। दक्षिण तट पर राम की स्मृति में बने भवन हैं..एक किले को रामकोट कहते हैं। इसे औरंगजेब ने गिराकर तीन गुंबदों वाली मस्जिद बनाई लेकिन अधिकाश का विचार है कि इस मस्जिद को बाबर ने बनवाया..चैतमास के 24वें दिन यहा रामजन्म पर बड़ा मेला लगता है। न्यायालय ने इन्हीं तथ्यों को साक्ष्य बनाया है। यहा आस्था नहीं साक्ष्यों की ही कार्यवाही है।

भारत के स्वयंभू सेक्युलर विश्व की अनूठी नस्ल है। दुनिया के किसी भी देश के राजनेता अपने संविधान और न्यायिक कार्यवाही पर ऐसा घटिया हमला नहीं करते। फैसले में आस्था आधारित निष्कर्ष नहीं हैं। श्रीराम ऐतिहासिक तथ्य हैं। श्रीराम मनुष्य थे मर्यादा (संविधान) पालक थे सो आस्था बने। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर राष्ट्रभाव का रूप-विधान है। न्यायालय ने एएसआई द्वारा की गई खुदाई से प्राप्त तथ्यों को भी आधार बनाया है। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने लिखा है कि 'विवादित ढाचा किसी खाली जगह पर नहीं बना यहा पहले से ही एक निर्माण था। निर्माता को यह ज्ञात था। उसने इसकी दीवारों के उपयोग में संकोच नहीं किया। उसके पत्थरों, खंभों, ईंटों का उपयोग किया। न्यायमूति शर्मा ने लिखा कि यह उत्खनन भी न्यायालय के आदेश पर ही एएसआई ने किया था। रिपोर्ट में प्राचीन मंदिर के साक्ष्य हैं मंदिर की नींव है। खंभे हैं। एएसआई के निष्कर्ष हैं कि यहा एक मंदिर ही था। न्यायालय ने इस रिपोर्ट को साक्ष्य मानकर क्या गलती की? इसी एएसआई की रिपोर्ट के आधार पर सभी सेक्युलर आर्य आक्रमण का सिद्धात बघारते हैं लेकिन इसी एएसआई की रिपोर्ट साक्ष्य क्यों नहीं है? क्या कथित सेक्युलर न्यायालय से भी अल्पसंख्यकवाद की अपेक्षा करते थे? न्यायमूर्ति अग्रवाल ने पौने तीन सौ पुस्तकों व लगभग आठ सौ न्यायिक निर्णयों का तर्कसंगत उल्लेख किया है। फैसले में अंग्रेजीराज की प्रीवी काउंसिल के वाद 1930, 1933 व 1942 के उद्धरण हैं। अग्रवाल ने श्रीराम की ऐतिहासिकता पर यथार्थवादी टिप्पणी की राम ऐतिहासिक व्यक्ति थे या नहीं इस तथ्य की जाच कोर्ट नहीं कर सकता। अस्तित्व सिद्ध करने में साक्ष्यों के अभाव का निष्कर्ष अस्तित्वहीनता का साक्ष्य नहीं होता। प्रभु यीशु या पैगंबर मोहम्मद के बारे में ऐसे प्रश्न पूछने का कोई साहस नहीं कर सकता। तब इस बारे में साक्ष्य का प्रश्न ही क्यों है?


निराश सेक्युलरों ने श्रीराम जन्मस्थान के बारे में कुतर्कपूर्ण सवाल उठाए हैं। आधुनिक पीढ़ी के पास भी मात्र अपनी तीन पीढ़ी पहले के दादा नाना का भी जन्मस्थान रिकॉर्ड नहीं है। मूल प्रश्न प्राचीन मंदिर की जगह मस्जिद बनाने का ही था। इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता बावजूद इसके बाबर, औरंगजेब, गजनी, कुतुबुद्दीन जैसे कुख्यात हमलावरों ने सैकड़ों मंदिर ढहाए और मस्जिदें बनवाईं।

असल में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर और बाबरी मस्जिद, दोनों ही ऐतिहासिक तथ्य हैं। दोनों के प्रमाण हैं और दोनों के साक्ष्य भी हैं। मंदिरों-मस्जिदों के निर्माण आस्था से ही होते हैं। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर सहित भारत के सारे मंदिर आस्था और राष्ट्रभाव की निर्मिति हैं लेकिन अयोध्या में बनी बाबरी मस्जिद, दिल्ली की कुवतुल इस्लाम या अजमेर का ढाई दिन का झोपड़ा, काशी, मथुरा आदि के मध्यकालीन निर्माणों का मकसद 'आस्था नहीं राष्ट्रीय अपमान है। ऐसे निर्माणों का लक्ष्य हिंदू अपमान था। वरना खाली जगहों पर वे हजारों मस्जिदें बना सकते थे। पोलैंड रोमन कैथोलिक देश था। सन 1914-15 में वारसा पर रूसी अधिकार हो गया। रूसियों ने यहा ईस्टर्न आर्थोडाक्स कैथेड्रेल बनाया। 1918 में पोलैंड स्वतंत्र हुआ। उसने कैथेड्रेल गिरवा दिया। अर्नाल्ड टायनबी ने लिखा है मैं पोलैंड की सरकार को रूसी चर्च को गिराने के लिए लाछित नहीं करता। इसके निर्माण का प्रयोजन धार्मिक न होकर राजनीतिक था। एक उपासना स्थल की जगह बने दूसरे उपासना स्थल राष्ट्रभाव घटाते हैं। न्यायालय को मंदिर की जगह मस्जिद निर्माण के ऐसे ही साक्ष्य मिले हैं।


श्रीराम मंदिर ऐतिहासिक तथ्य साक्ष्य और आस्था भी है। तथ्यों और साक्ष्यों ने हिंदू आस्था को सही ठहराया है तो कोर्ट क्या करें? क्या साक्ष्यों को खारिज करे? क्या एएसआई की रिपोर्ट को नजरंदाज करे? क्या देश-विदेश के सैकड़ों विद्वानों के आखों देखे विवरणों को बकवास माने? जैसे बाबरी मस्जिद निर्माण का लक्ष्य राजनीतिक था वैसे ही बाबरी पर नेताओं का विलाप भी राजनीतिक है। थोक वोट बैंक का लोभ ही बाबरी मस्जिद की मोहब्बत है।

(लेखक : उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व संसदीय कार्य मंत्री हैं)

(साभार : दैनिक जागरण, 12/10/2010)

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