Saturday, October 30, 2010

जीत तो आस्था की ही हुई है

आशुतोष भटनागर

साठ साल से भी ज्यादा समय से पहले जिला और फिर उच्च न्यायालय में रामजन्मभूमि और बाबरी ढ़ांचे का विवाद चला। मुकदमा लड़ने वालों की पीढ़ियां बीत गयीं पर मुकदमे में गवाही तक पूरी न हो सकी। त्वरित सुनवाई के लिए गठित विशेष पीठ ने भी फैसले तक पहुंचने में १७ वर्ष लगाये।


7 जनवरी 1993 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा ने उच्चतम न्यायालय से संविधान की धारा 143 के अंतर्गत विवादित स्थल की ऐतिहासिकता के विषय में परामर्श मांगा कि क्या वहां कोई मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह पता लगाने की जिम्मेदारी इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ को सौंप दी। तीन न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई शुरू हुई। पीठ से न्यायाधीश सेवानिवृत्त अथवा स्थानान्तरित होते रहे और पीठ की संरचना बदलती रही। मुकदमे के दौरान 12 बार पीठ का पुनर्गठन हुआ। हर बार गठन में एक मुस्लिम न्यायाधीश को अवश्य जोड़ा गया।


डॉ शंकर दयाल शर्मा जिस संवैधानिक पद पर थे वहां उनसे इस विवादित मुद्दे पर निरपेक्ष फैसला लेने की आशा देश कर रहा था। यह स्वाभाविक भी था। राष्ट्रपति महोदय ने अपने पद की गरिमा बनाये रखते हुए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व तथ्यों की न्यायसंगत जांच का निश्चय करते हुए इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की सहायता चाही थी। लेकिन आज जब इस मामले पर पीठ का फैसला आया है तो डॉ शंकर दयाल शर्मा को इस दुनियां से गये हुए ग्यारह वर्ष हो चुके हैं !


फैसला आने से घड़ी भर पहले तक सभी वुद्धिजीवी, राजनैतिक दल तथा स्वयंभू मनीषी पत्रकार न्यायालय का फैसला मानने की बात कर रहे थे। जैसे ही फैसले में विवादित स्थल को हिन्दुओं को सौंपे जाने की जानकारी मिली, सबकी भाषा बदल गयी। अब वे आरोप लगा रहे हैं कि यह न्याय नहीं है बल्कि आस्था के आधार पर फैसला किया गया है। प्रश्न खड़ा किया जा रहा है कि देश न्याय के आधार पर चलेगा या आस्था के आधार पर। अगर आस्था को आधार बना कर फैसले होने लगे तो लोकतंत्र बचाना मुश्किल हो जायेगा।


न्याय बनाम आस्थाके प्रश्न उठाने वाले इन बुद्धिजीवियों को उन प्रश्नों के उत्तर भी खोज रखने चाहिये जो उनके इस स्टैंड के चलते जन्म लेने वाले हैं। साथ ही सवाल यह भी है कि यदि यह केवल न्याय का मामला है और आस्था से इसका कोई लेना-देना नहीं है तो वे इतने विचलित क्यों है। अगर यह वाद केवल एक बूढ़ी इमारत का है जो इतनी जर्जर हो चुकी थी कि अगर कारसेवक उसे नहीं गिराते तो वह अपने ही बोझ से ढ़ह जाती, तो इन सेकुलरों की इसमें इतनी दिलचस्पी क्यों है।


जिस जर्जर अवस्था में वह विवादित ढ़ांचा पहुंच चुका था उसमें उचित तो यही था कि जनता के जान-माल की रक्षा के लिये किसी दुर्घटना से पहले नगर पालिका का दस्ता उसे गिरा कर वहां समतल मैदान बना देता। रामलला उस जीर्ण-शीर्ण मंदिर में विराजमान थे इसलिये उसके पुनर्निर्माण का भी विकल्प मौजूद था। भारत ही नहीं बल्कि पूरे संसार में, यहां तक कि मुस्लिम देशों में भी सार्वजनिक निर्माण के लिये मस्जिदों को हटाया जाता रहा है इसलिये उसे विस्थापित करने में कोई खास कानूनी बाध्यता भी नहीं आने वाली थी। फिर भी उसको बचाये रखने के लिये सारे प्रयत्न किये गये तो इसका कारण केवल मुस्लिम समुदाय द्वारा प्रदर्शित आस्थाही था।


न्यायालय में प्रस्तुत किये गये प्रमाणों के आधार पर उक्त भूमि पर मस्जिद के निर्माण से पूर्व मंदिर के मौजूद होने के तथ्यों को स्वीकार करते हुए मस्जिद का दावा पूरी तरह खारिज कर दिया गया है। दावा खारिज होने के बावजूद उन्हें एक-तिहाई भूमि देने का एकमात्र कारण न्यायालय द्वारा उनकी आस्थाका आदर करने के अतिरिक्त क्या हो सकता है ? यह तो कोई अनपढ़ भी बता सकता है कि जिसका दावा खारिज किया गया हो वह भूमि का हकदार नहीं हो सकता।


आज जो लोग यह देश न्याय से चलेगा अथवा आस्था सेका नारा बुलंद कर रहे हैं उन्हें यह याद रखना चाहिये कि अयोध्या का यह विवाद ही नहीं बल्कि ऐसे अनेकों अवसर भारत के इतिहास में दर्ज हैं जब केवल उनकी आस्थाका आदर किया गया है और देश ने उसकी कीमत चुकाई है। बहुत लंबे इतिहास में न भी जायें तो भारत की आजादी के ठीक पहले उत्पन्न हिन्दुस्थान में दो राष्ट्र रहते हैंऔर मुस्लिम अलग राष्ट्र हैं जिन्हें अलग होमलैंड चाहिये’, यह न्यायपर आधारित था या आस्थापर ?


भारत का राष्ट्रगीत वन्देमातरमन गाना, इसके पीछे न्याय का कौन सा तर्क है ? शाहबानो का मसला अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट कर न्यायकी रक्षा की गयी थी या आस्थाकी ? उस समय क्यों किसी ने नहीं पूछा कि देश कानून से चलेगा या आस्था से’ ? कश्मीर में लगने वाला नारा – ‘आजादी का मतलब क्या - या लिल्लाहे, लिल्लिल्लाह’ ‘आस्थाहै या न्याय। दुनियां के किस संविधान में आजादीका यह मतलब है।

बनारस के कब्रिस्तान में खामोश लेटे कयामत का इन्तजार कर रहे दो मरहूमों की कब्रें वहां से हटाने की मांग का संबंध आस्थासे है या न्यायसे ? शिया और सुन्नी तथा देवबंदी औऱ बरेलवी के बीच होने वाले फसाद कानून की वजह से होते हैं या आस्था की वजह से ? बामियान में बुद्ध की प्रतिमाएं जब तोप से उड़ायी गयी तो सवाल आस्था का था या नहीं ? और जब डेनमार्क के किसी अखबार में मुहम्मद साहब का कार्टून छपता है या तस्लीमा नसरीन कोई टिप्पणी करती है तो यहां के लोग क्यों आगबबूला हो जाते हैं ? वे कोई गैरकानूनी काम तो नहीं कर रहे थे। अपने देश के कानून के हिसाब से यह उनका संविधान प्रदत्त अधिकार था। ऐसे समय में वे आस्था की दुहाई क्यों देने लगते हैं ? आस्था के प्रति उनका यह प्रेम तब कहां खो जाता है जब मकबूल फिदा हुसैन हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाते हैं ? तब वे क्यों अभिव्यक्ति की आजादी की बात करने लगते हैं ?


सैकड़ों ऐसे सवाल खड़े किये जा सकते हैं, उदाहरण दिये जा सकते हैं जब देश में मुस्लिम समुदाय की आस्थाओं की रक्षा के लिये देश ने कीमत चुकायी है और बहुसंख्यक समुदाय ने उदारतापूर्व इसे स्वीकार किया है। लेकिन वही बहुसंख्यक समुदाय जब अपनी आस्थाओं की बात करता है तो सब कानून की दुहाई देने लगते हैं। आचरण का यह दोहरापन नागरिक जवाबदेही को नकारता है।


रामजन्मभूमि प्रकरण पर उच्च न्यायालय का यह फैसला निस्संदेह कानून की परिधि से बाहर जाकर दिया गया है लेकिन यह इसलिये हुआ है ताकि सीमा पार जाकर भी मुस्लिम समुदाय की आस्थाकी रक्षा की जा सके। मुस्लिम समुदाय को यह समझना चाहिये कि बुद्धिजीवियों की जो जमात उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में जाने के लिये उकसा रही है वे ही आयातित विचारधारा और इस या उस दल के राजनैतिक हितों के लिये दोनों समुदायों के बीच समरसता और विश्वास उत्पन्न नहीं होने देने के अपराधी भी हैं।


उच्च न्यायालय के निर्णय में दोनों ही पक्षों की आस्था की रक्षा का प्रयत्न दिखाई देता है। अतः जीत तो आस्था की ही हुई है। विवादित स्थान पर पूरी तरह पक्ष में निर्णय होने के बाद भी बहुसंख्यक समाज ने एक-तिहाई भूमि मुस्लिम समाज को सौंपे जाने के फैसले का जिस तरह स्वागत किया है वह सौहार्द के लिये एक ठोस धरातल उपलब्ध कराता है। संयोग से हासिल हुआ राष्ट्रीय एकता का यह अवसर यूं ही गंवा दिया गया तो आने वाला इतिहास माफ नहीं करेगा।
(लेखक : विश्व हिंदू वॉयस के सलाहकार सम्पादक हैं)


(साभार : http://www.vhv.org.in, 08 अक्टूबर, 2010)

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