Tuesday, October 26, 2010

अयोध्या अलख क्यों नहीं जगाती

शशि शेखर
पता नहीं क्यों श्रीकांत वर्मा याद आ रहे हैं- कोसल अधिक दिन टिक नहीं सकता, कोसल में विचारों की कमी है।जब यह कविता पहली बार पढ़ी थी तभी दिल और दिमाग के बेहद संवेदनशील कोने पर इसने कब्जा जमा लिया था। विचारहीन साम्राज्य खत्म हो जाते हैं क्योंकि हम अकसर सत्तानायकों की कथनी और करनी को ही सब कुछ मान लेते हैं और अपनी उस ताकत को भूल जाते हैं जो लोकतांत्रिक व्यवस्था ने हमें बख्शी है। अयोध्या के मसले पर कुछ ऐसा ही हो रहा है।

मैं जब पहली बार अयोध्या गया था तब तथाकथित रामजन्मभूमि आंदोलन जवान हो चुका था। उस दिन भी रामनामी ओढ़े हुए कुछ नौजवान नारे लगा रहे थे और मूक सिपाही उनकी ओर से बिल्कुल निर्लिप्त खड़े थे। मन में सवाल उठा था कि ये इन्हें चुप कराके भगाते क्यों नहीं हैं? एक अधिकारी से पूछा भी था तो उसने कहा था कि अरे यह तो रोज का तमाशा है। ये लोग थोड़ी चिल्ल-पौं मचाते हैं और फिर दफा हो जाते हैं।

अयोध्या के बाशिन्दे भी ऐसे ही बोली बोल रहे थे। लगता था कि सब ऐसे ही चलता रहेगा और यथास्थिति जीने के आदी हम हिन्दुस्तानी इसे भी रोजमर्रा का अंधड़ मानकर चुपचाप आगे बढ़ लेते थे। पर 1989 से 92 के बीच की घटनाओं ने साबित कर दिया कि पूरा देश गलत था। यथास्थिति हमेशा कायम नहीं रह सकती। आप या तो आगे बढ़िए या फिर पीछे रह जाने को तैयार रहिए। उस दौरान हिन्दुस्तान की हुकूमत न सिर्फ फैसले लेने में पीछे रही बल्कि अपने ही कुछ बहके हुए नागरिकों के पैरों तले अपनी इज्जत को कुचलवाने के लिए भी मजबूर हुई।

खुद अयोध्या के वासियों के लिए भी छ: दिसम्बर 92 एक दु:स्वप्न साबित हुआ। पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान उन्हें बरसों से सामान्य जीवन से वंचित किए हुए थे, पर ढ़ांचा तोड़े जाने के बाद कुछ लोगों के घरों में जिस तरह आग लगाई गई, वह वहां के लोगों के लिए सामूहिक शर्म की वजह थी।

इस जिल्लत का सबसे बड़ा कारण यह था कि उत्पीड़ित लोग एक खास वर्ग के थे। उनकी कुछ मान्यताएं अलग थीं और बाकी सब कुछ रामलला और उनके अपने शहर को समर्पित था। कुछ ऐसे जुलाहे थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी रामलला के लिए कपड़े बुनते आए थे। जिन लोगों ने उनके घरों में भगवान राम के नारे लगाते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम की नगरी के शील को तार-तार किया था, उनसे कहीं ज्यादा इन लोगों के दिल में भगवान बसते थे।

यह ठीक है कि वह मंदिर जाकर सिर नवाने में यकीन नहीं करते थे पर हर अयोध्या वासी की तरह मंदिरों में बजते सुबह के घंटे इनकी सुबह को गुलजार करते थे। रात की आरतियां उन्हें लोरी सुनाती थीं। बाहर से आए लोग न इस सच को जानते और न जानना चाहते थे।

यह तो अवध का मिजाज है कि वह हर दुख को भूल जाता है और आगे की सुधि लेता है। जिनके घर जले उन्होंने भी अयोध्या को छोड़ना मुनासिब नहीं समझा। वे वहीं रहे जहां उनके पुरखे दफन हुए थे। मंदिरों की घंटियों और आरतियों से उनका रिश्ता बना रहा। यह बात अलग है कि उसके बाद बहुत दिनों तक देश सुलगता रहा।

अयोध्या की तरह ही इस मुल्क के मिजाज में भी समरसता है। 18 साल बाद उस दौरान या उसके बाद जन्मी और पनपी पीढ़ी ने साबित कर दिया कि मंदिर-मस्जिद के झगड़े अपनी जगह हैं, जिंदगी उनसे ठप नहीं पड़नी चाहिए। यहीं पर मेरे मन में एक शिकायत पैदा होती है। विरोधाभास देखिए। एक नेक उम्मीद भी यहीं अंगड़ाई लेती है।

पहले शिकायत की बात। अयोध्या के वासी जानते थे कि बाहर से आए लोग उनसे ज्यादा रामभक्त नहीं हैं, पर वे चुप रहे। अगर वे मानव श्रृंखला बनाकर खड़े हो जाते, तो शायद कहानी कुछ और बनती। लगभग उसी दौरान यूरोप में दो शांत क्रांतियां हो रहीं थीं।

पहले बर्लिन की बात करते हैं। हिटलर के पतन के साथ ही जर्मनी को दो टुकड़ों में बांट दिया गया था। इसमें सबसे दर्दनाक था इस मुल्क के दिल बर्लिन का बंटना। शहर को एक दीवार के जरिए दो हिस्सों में बांट दिया गया था। एक हवा, एक धरती, एक रवायत, एक-सा मिजाज, पर अचानक शहर दो हिस्सों में बंट गया। इस फैसले को वहां के लोगों ने कुछ इस दर्द के साथ लिया और दिया जैसे उनकी देह को बीच से दो हिस्सों में फाड़ दिया गया हो।

पांच दशक की जद्दोजहद के बाद आखिरकार आम आदमी की इच्छा के आगे हुकूमतें झुक गईं। दीवार टूट गई। इसी के साथ जर्मनी जैसे उन पापों से मुक्त हो गई जो कभी नाजियों ने किए थे। यह भी साबित हो गया कि समय की शिला पर कोई भी घाव इंसानियत के जज्बे से ज्यादा ताकतवर नहीं होता है। जिन्होंने विभाजित बर्लिन को देखा है, वे जब आज वहां जाते हैं तो उन्हें हर शहरी के चेहरे पर वही उल्लास दिखता है जो कभी इस महानगर की आन, बान और शान हुआ करता था।

दूसरा उदाहरण सोवियत संघ का है। जब कारसेवक हिन्दुस्तान में ढांचा ढहाने की तैयारी कर रहे थे, उसी समय सोवियत संघ के लोग अपने लिए नई व्यवस्था का निर्माण कर रहे थे। लगभग 75 साल पुरानी कम्युनिस्ट प्रणाली ने उनके सपनों पर बुलडोजर चला दिए थे। वे समय से पिछड़ गए थे। कभी स्टालिन, कभी ख्रुश्चेव की बंदूकें उन्हें धमकाकर चुप करा देती थीं। पर दबाव हमेशा कारगर नहीं होते। एक न एक दिन उन्हें चुक जाना होता है।

सोवियत संघ तमाम टुकड़ों में बंट गया। जो लोग पूरी दुनिया को लाल रंग में रंगने का सपना देखते थे, वे खुद जमींदोज हो गए। मुझे मास्को में लेनिन की अकेली मूर्ति देखकर अफसोस हुआ था। इस महान शख्स ने पूरी दुनिया की आंखों में समता के नए सपने रोपे थे। उसके तानाशाह शिष्यों ने न केवल लोगों के दिल तोड़े बल्कि खुद उन्हें अकेला खड़ा रहने पर मजबूर कर दिया। लेनिन के बुत भले ही लोगों के आक्रोश का शिकार हुए हों पर यह सच है कि सोवियत संघ के लोगों ने भी दुनिया को दिखा दिया था कि जनता की ताकत सबसे बड़ी होती है।

यही वजह है कि मुझे अयोध्या के लोगों से हल्की-सी शिकायत है। मीर बाकी तो सेनाओं के साथ नफरत की आंधी लेकर आया था। उसने अगर कोई मंदिर तोड़ा, तो वह उस समय का चलन था। रामलला के नारे लगाते हुए शहर की मर्यादा से खेलने वाले लोगों से अगर यहां के लोग जूझ पड़ते तो दुनिया के सामने देश का सिर कितना ऊंचा होता। हम कह सकते थे कि सोवियत संघ और जर्मनी से बड़े उदाहरण तो हमारे एक छोटे से शहर में मौजूद हैं।

अब आते हैं उम्मीद पर। रामनगरी से ही इस बार सुलह के स्वर फूट रहे हैं। क्यों नहीं यहां के लोग एकजुट होकर कोई फैसला कर लेते। यकीन जानिए। अगर अमन के पक्ष में उन्होंने कोई मर्यादासम्मत निर्णय किया तो हुकूमत भी उनके पीछे खड़ी नजर आएगी।

सरकारें हम से हैं, हम सरकारों से नहीं। इस सच को एक बार फिर से साबित करने का वक्त आ गया है। क्यों नहीं अयोध्या एक बार फिर से पूरे देश में एक नया अलख जगाती? अगर ऐसा होता है तो इस मुल्क के सारे अमनपसंद लोग इसके पीछे खड़े होंगे। भगवान श्रीराम को इससे बड़ी भावांजलि भला और क्या होगी?
(लेखक : दैनिक हिन्दुस्तान के प्रधान सम्पादक हैं)


(साभार : दैनिक हिन्दुस्तान, 10/10/2010)

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