Tuesday, October 26, 2010

चंद्रशेखर मॉडल पर बढ़ा जाये



अयोध्या पर फैसला आने के बाद देश ने अभूतपूर्व संयम दिखाया है। उनकी सजगता और शालीनता ने सारी आशंकाओं को निर्मूल कर दिया है।
इसी समझदारी के चलते इस मामले को अदालत के बाहर सुलझाने की पहल शुरू हो गयी है। यह प्रयास परवान चढ़ा तो एक नई सुबह का आगाज होगा, जो हिन्दू-मुस्लिम एकता को और बलवती करेगा और दुनिया के सामने एक सुभाषित मिसाल होगी। इसके लिए राजनीति और धर्म के ठेकेदारों को दूर रखने की जरूरत है। वे अपने बयानों और आचरण के जरिये सामाजिक समरस्ता को कमजोर करने के साथ ही साथ इस प्रयास को भोथरा करना चाहते है। इससे दोनों समुदायों (हिन्दू-मुस्लमान) के लोगों को सतर्क रहना होगा। ताकि उनके मंसूबे पर पानी फिर सके।

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सुलझाने के लिए इससे पहले भी कई प्रयास सरकारी तथा गैर सरकारी स्तरों पर हो चुके हैं। उन प्रयासों को सफलता इसलिए नहीं मिली की राजनीति आड़े आ गयी। इस बार बाबरी मस्जिद के मुद्दई मो. हाशिम अंसारी ने अदालत के बाहर इस मसले को सुलझाने की पहल की है। इस सम्बन्ध में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास से उनकी दो मुलाकातें हो चुकी हैं। उनके इस प्रयास का कई हिन्दू-मुस्लिम संगठनों ने भी समर्थन किया है। पर उन्हें यह नागवार गुजर रहा है, जो इसके सहारे राजनीतिक ध्रुवीकरण चाहते है। इसमें राजनेता और धर्म के ठेकेदार दोनों शामिल है। उनकी गतिविधियों से इस प्रयास को झटका लगा है। उनकी इन्हीं गतिविधियों के चलते अब साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ने का भी खतरा है। ये ताकतें न्यायालय के फैसले पर उंगलियां उठाने से भी चूक नहीं रही है। क्या आम हिन्दू और मुस्लमान ऐसी ताकतों को अलग-थलग कर सकें गे? यह बड़ा सवाल उनके सामने है। क्योंकि चाहे राजनीतिक  दल हों अथवा कट्टर धार्मिक संगठन, कोई भी ईमानदारी से इसका हल नहीं चाहता। वे इसे उलझा कर रखना चाहते हैं ताकि उनका महत्त्व बना रहे। यही त्रासदी है जिसके चलते यह विवाद सुलझने का नाम ही नहीं ले रहा है।

मुझे शिलान्यास और बाबरी मस्जिद विध्वंस का दौर याद है। चरमपंथी धार्मिक संगठनों और राजनीतिक दलों ने इसे जिस तरह भुनाया, उसका परिणाम यह हुआ कि बाबरी मस्जिद बचायी नहीं जा सकी। तब समूचा देश साम्प्रदायिक आग में झुलस गया था और देश का विकास ठहर गया था। सामाजिक समरसता कटुता में बदल गयी थी। इस मुद्दे के सहारे राजनीति करने वाले केन्द्र और उत्तर प्रदेश में सत्तासीन जरूर हुए थे। पर कोई इस विवाद को सुलझा नहीं सका। अब जब इस पर न्यायालय का फैसला आ गया है तो वे फिर इसके सहारे वोट की फसल काटने को बेताब हो रहे हैं। क्योंकि उनकी चिंता अयोध्या में मंदिर-मस्जिद बनने की नहीं बल्कि अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता की है।  इस सचाई को दोनों समुदाय के लोगों को समझना होगा तभी हम उनके नापाक इरादों पर विराम लगा सकते हैं। क्योंकि इस दौरान जन-धन की जो हानि हुई थी, उस पर मरहम लगाने और क्षतिपूर्ति की दिशा में कोई ठोस प्रयास इनके द्वारा नहीं किया गया। सबकी कथनी और करनी सामने है। इसलिए दोनों कौम का कौन हितैषी है, इसको समझने में दोनों समुदायों को अब कोई भ्रम नहीं होना चाहिए।

शिलान्यास के बाद से ही इसके समाधान के फार्मूले पर बात शुरू हो गयी थी। किंतु उसी बीच राजीव गांधी सरकार का कार्यकाल समाप्त हो गया। इसके पश्चात वी पी सिंह के समय में करीब-करीब सहमति बन गयी थी। सरकार ने अध्यादेश जारी किया था, जिसमें यह था कि 'मस्जिद का ढांचा बना रहेगा, जहां राम चबूतरा है वहीं मंदिर का काम शुरू होगा।' किंतु दबाव पड़ा तो अध्यादेश वापस ले लिया गया और वी पी सिंह की सरकार गिर गयी। इसके बाद चन्द्रशेखर सरकार ने भी इसे सुलझाने का प्रयास किया। बताया जाता है कि समझौता यह था कि मस्जिद की पुनस्र्थापना होगी, अर्थात उसे 'री लोकेट' किया जायेगा। इसके लिए शिया-सुन्नी समुदाय के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विद्वानों को समझा लिया गया था। इसका हल निकलते देख कांग्रेस को लगने लगा कि चन्द्रशेखर रास्ता निकाल लेंगे तो कांग्रेस की वापसी मुश्किल हो जाएगी। इसीलिए कांग्रेस ने दूसरा बहाना बनाकर उनकी सरकार ही गिरा दी। नरसिंह राव जब आये तब भी इसी फार्मूले पर आगे काम करने की कोशिश हुई पर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी समय-समय पर अपना रुख बदलती रही। वह 'रीलोकेशन' करने को भी तैयार नहीं हुई, जिसका चरम छह दिसम्बर 1992 को हुआ। बाबरी मस्जिद बचायी नहीं जा सकी।

इन खट्टे-मीठे उतार-चढ़ावों के बीच आज साठ साल बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आ चुका है। न्यायाधीशों ने भी विवादित स्थल को रामजन्म भूमि माना है और उसे तीन हिस्सों में बांटने का आदेश पारित किया है। इसलिए रामजन्म भूमि को लेकर कोई विवाद नहीं रहा। चन्द्रशेखर सरकार में मस्जिद के 'रीलोकेशन' के सवाल पर शिया-सुन्नी विद्वानों में सहमति बन सी गयी थी और आज मस्जिद वहां अस्तित्व में भी नहीं है। इसलिए मुसलमानों को पुन: इस पर सोचना चाहिए। यद्यपि बाबरी मस्जिद के मुद्दई हाशिम अंसारी ने इस दिशा में पहल शुरू कर दी है। इसलिए मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड, सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के लोगों को इस सार्थक पहल को आगे बढ़ाना चाहिए। क्योंकि मुसलमानों की नई पीढ़ी मेरी समझ से इस मध्यकालीन संकट के पचड़े में पड़ना नहीं चाहती। अदालत के फैसले के बाद उसने अपने संयमित आचरण से यह दिखा भी दिया है। राजनीतिक दलों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वह घृणा और बंटवारे की राजनीति से दूर रहें। देश के आम नागरिकों, हिन्दू-मुसलमान तथा अन्य धर्म के अनुयायियों ने वर्ष 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में बंटवारे की राजनीति के विरोध में ही अपना मत दिया है। ऐसा समझदारी और विकास की बढ़ती ललक के कारण हुआ है। इसीलिए इस मुद्दे में अब आम मतदाताओं को एकजुट करने की ताकत नहीं है। यह उन्हें मान लेना चाहिए। बिहार चुनाव कसौटी पर है, जो एक बार फिर इस पर मुहर लगाएगा।

मैं उन राजनेताओं और धार्मिक चरमपंथियों को समझाना चाहता हूं जिन्हें इस मुद्दे पर ध्रुवीकरण की उम्मीद है। आम-हिन्दू और मुसलमान की धर्म के प्रति आस्था है, पर इसके लिए साम्प्रदायिक टकराव अब उन्हें मंजूर नहीं है। उन्हें पूरा एहसास है कि उकसावे की कीमत उन्हें खुद अदा करनी पड़ती है। उन्होंने यह बात समझ ली है कि गरीबी साम्प्रदायिक नहीं होती। उनकी सोच में आया यह असाधारण परिवर्तन ही आज हमारी ताकत है। यह बात हमारे नेता व धर्म के तथाकथित ठेकेदार समझ नहीं पा रहे है। इसीलिए उन्हें 1992 से 2010 के बीच का बदलाव भी समझ में नहीं आ रहा है। इसी 30 सितम्बर को न्यायालय का फैसला आने से पहले तक तरह-तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। देश-दुनिया की नजर इसी फैसले पर टिकी हुई थी। एक अजीब सी सनसनी और कुतूहल का माहौल था। किन्तु फैसले के बाद से अभी तक समाज के सभी वर्ग के लोगों ने अभूतपूर्व संयम दिखाते हुए सभी आशंकाओं को निर्मूल कर दिया है। उन्होंने यह दिखा दिया है कि नफरत और टकराव उन्हें पसन्द नहीं है। इसी संयम और संकल्प ने आज दुनिया को विस्मृत कर दिया है। अब ऐसे ही समय में दोनों समुदायों के लोगों को इसका एक सर्वमान्य हल ढूंढ कर एक नई मिसाल पेश करनी चाहिए। क्योंकि इस दिशा में पुन: एक सार्थक पहल हुई है, जिसे परवान चढ़ाने की जिम्मेदारी समाज के हर वर्ग की है। अब इंतजार इस नई सुबह का है।


(साभार : सहारा समय, 09/10/2010)

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