Tuesday, October 26, 2010

नई राह पर पहला कदम

आर. विक्रम सिंह
 
एक अरसे से चौराहे पर खड़े इस मुल्क ने अपने मुस्तकबिल की ओर एक बोझिल-सा कदम उठाया है। इस फैसले से क्षितिज पर रोशनी की किरण-सी कौंध गई है, लेकिन रेगिस्तान की रात में अभी दूर तक चलना है। सियासतें भी हैं, जो जल्दी हमारा रास्ता न छोड़ेंगी। जो लोग सांप्रदायिकता की खाद पर जिंदा हैं वे पुरजोर प्रयास करेंगे कि विवाद का मौजूदा स्वरूप बना रहे। हाईकोर्ट का यह फैसला राजनीतिक है, समझौतावादी है, ऐसी बातें शुरू भी हो गई हैं। फैसले के स्वीकार, अस्वीकार का दौर भी चल पड़ा है, लेकिन यह देश अब उसी चौराहे पर खड़ा न रह पाएगा, बल्कि उस ओर चलना इसकी नियति है जिधर हाईकोर्ट ने राह सुझाई है। नकली समस्याओं की उलझनें हम पर इस कदर हावी रहीं कि हमारी असल समस्याएं पृष्ठभूमि में जाने लगी थीं। यह फैसला गवाह है कि कानून अंधा नहीं होता। जब समस्याएं राष्ट्र की हों तो अदालतें सबूतों की जमीन से ऊपर उठकर बंधी बंधाई लीक का अतिक्रमण कर सकती हैं।
 
अपने सिविल कानूनों की उम्र बहुत थोड़ी है। उम्मीद करना कि 1528 से पहले के कानूनविहीन दौर की घटनाओं को विधिक धाराओं की सीमा में ले आया जाएगा, शायद ज्यादती होगी। वहां जहां सबूत नहीं हैं सिर्फ मान्यताएं हैं, उन विवादों का आज समाधान कैसे हो? अदालतें भी चाहतीं तो साक्ष्यों के अभाव की बात कहकर इस मुद्दे से किनारा कर लेती, लेकिन उच्च न्यायालय के जजों ने ऐसा नहीं किया। आलोचना, फजीहत की आशकाओं का कड़वा घूंट पीकर भी देशहित में इस विषय पर निर्णय दिया जाना अपने आप में बहुत बड़ी बात है। अदालत ने हमारे दौर के छोटे कद और छोटी सोच के नेताओं के सामने एक मिसाल कायम की है। लोकतंत्र सिर्फ वोटरों को खुश करके वोट लेने की व्यवस्था नहीं, बल्कि सख्त फैसलों की जमीन पर कायम व्यवस्था है। किसी को तकलीफ है कि सबूतों की जगह आस्थाओं पर फैसला दिया गया। जब सारा प्रश्न ही आस्था का है तो आस्था के ग्रंथों का सहारा लेकर समाधान की राह खोजना गलत कहां से है। एएसआई की रपट से स्पष्ट पुराने तथ्य सामने आते हैं कि विवादित ढांचे के निकट एक विशाल ढांचा रहा है। पचास खंभों के आकार का जिक्र किया गया है। यह रपट निर्णय का महत्वपूर्ण आधार रही है। इसलिए साक्ष्यों के अभाव की बात में कोई दम नजर नहींआता। बेशक लोग सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं, लेकिन तब तक उम्मीद है कि हम अपने भविष्य की राह पर काफी आगे आ चुके होंगे।
 
मंदिर-मस्जिद की सियासतों को ज्ञान ही नहीं था कि हमारी अपनी समस्याओं के अंबार बढ़ते जा रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी जैसे इनकी समस्याएं नहीं थीं। कश्मीर का बुरा हाल है। आदिवासी इलाकों की उपेक्षा विद्रोह की शक्ल ले रही है। मंदिर-मस्जिद तक सीमित लोग सोच ही नहीं सके कि चीन कब दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया। पाकिस्तान केपरमाणु बमों की संख्या सैकड़े को पार कर गई। हम इस लायक नहीं बचे कि मुंबई में धमाकों में मार दिए गए लोगों की शहादत का बदला लेने की भी सोच सकें। वह देश जिसे खुद हमला करना था, हमलावरों को सबूतों की खेप पहुंचा रहा था। हमें तो आतंकवादी कैंपों को बमों-मिसाइलों से तबाह कर देना था, करारी की नाकेबंदी कर देनी थी, लेकिन हम कुछ भी नहीं कर सके।
 
छोटी सोच और छोटे कदों के पास किसी भी समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि ये खाइयां खोदने वाले लोग हैं। अगर कोई समाधान की सूरत बन रही हो तो ये उसकी राह रोकने के उस्ताद हैं। ये वक्त को सियासी लाभ के लिए कैद रखना चाहते हैं। अपनी दुकानें बंद हो जाने से भयभीत ऐसे लोगों के पास कभी विकास की सोच नहीं रही। ये जानते हैं कि विकास की राह पर बढ़ चुके भारत में इनकी कहीं कोई जगह नहीं होगी। हम अनंतकाल तक बहस करते रह सकते हैं कि फैसला क्या है और क्या नहीं है? देश के लिए राम की अयोध्या का स्वीकार ही पर्याप्त है। विवाद, बहस और राजनीति यहीं खत्म हो जाती है। ऐसे समय में जब राजनीति सीमित दायरे से बाहर न आ पा रही हो, न्यायिक सक्रियता ही विकल्प की अकेली राह बन जाती है।
 
वर्र्षो बाद जब आज के गैर-जिम्मेदार सियासी और मजहबी लोग शमशान जा चुके होंगे या जमीन की चादर के नीचे होंगे तो तीन जजों का यह फैसला रोशनी की मीनार की तरह हमें रास्ता दिखाएगा। चाहे वार्ताओं के दौर चलते रहें या फिर विवाद ऊंची अदालत में ले जाया जाए, ऐसा लगता नहीं कि उच्च न्यायालय के निर्णय में राम जन्मभूमि के स्वीकार को किसी भी स्तर पर पलटा जा सकेगा। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हमारे मुस्लिम समाज की इस निर्णय पर अब तक विवेकपूर्ण प्रतिक्रिया रही है। महंत ज्ञानदास और हाशिम अंसारी की वार्ताओं से हमें उम्मीदें हो रही हैं कि विवाद का अंत सौहार्द्र की नई संभावनाएं जगाएगा। थके हुए योद्धाओं में प्राय: विवेक जागृत हो जाता है। हो सकता है कि इसी बहाने हम हर समस्या को हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखना बंद कर दें।
अयोध्या को लेकर चुनावी राजनीति की आशाएं धूमिल हो गई हैं। 

अयोध्या अपनी सास्कृतिक धार्मिक संभावनाओं की ओर वापस लौट आई है। अयोध्या पुन: अब उस धर्मप्राण जन-समुदाय की हो गई है जिन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने राम से काम है। उस परिसर का क्या दृश्य होगा 50 वर्र्षो बाद? एक हरा भरा, ऊंचे वृक्षों से रक्षित, पक्षियों के कलरव से गुंजायमान एक विशाल उपवन दिखता है। वही टीला, लेकिन उस पर कोई मंदिर नहीं है, कोई घटा कोई शख ध्वनि नहीं। राम भी नहीं। आकाश के नीचे सिर्फ एक बड़ी सी मूर्ति है, शिशु को गोद में लिए वात्सल्य की अवतार माँ कौशल्या की।..वह शिशु जो भारत का भाग्य विधाता बनेगा। जैसे पुष्य नक्षत्र का वह जन्मकाल सदा के लिए स्थिर हो गया हो। मुनि वशिष्ठ प्रतीक्षा में हैं कि कब नामकरण किया जाए। विश्वामित्र शस्त्र विद्या में प्रशिक्षण देने हेतु अधीर हैं। महर्षि बाल्मीकि सोच रहे हैं कि कब लीलाएं हों, वे कथा लिखना प्रारंभ करें। पवन ने भी दिशाओं को परिवर्तन का संदेश दे दिया है। हनुमान सुदूर दक्षिण किष्किंधा में हैं। शबरी की प्रतीक्षा प्रारंभ हो गई है। कोई विभीषण से लंका में कह गया है कि अन्याय का अंत निकट है। सारी सृष्टि इंतजार में है और यहाँ माँ है कि अपलक निहारती जा रही है सद्य:जात श्यामल शिशु को..।
 
(लेखक : सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)

(साभार : दैनिक जागरण, 15/10/2010)

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