Tuesday, October 26, 2010

फैसले की कानूनी पड़ताल

सुधांशु रंजन

अंतत: 60 वर्ष बाद अयोध्या के विवादित स्थल के बारे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के तीन न्यायाधीशों की पीठ का निर्णय आयऔर यह तय हो गया कि विवादित भूमि राम जन्मस्थान ही है। सबसे पहले इस निर्णय का इस कारण स्वागत किया जाना चाहिए कि जहां 1994 में उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत किए गए रेफरेंस को वापस कर दिया वहीं उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया है। अर्थात जहां ऐसे राष्ट्रीय विवाद पर, जो देश की राजनीति को प्रभावित कर रहा है, सर्वोच्च अदालत अपनी राय देने का साहस नहीं जुटा पाई वहीं उच्च न्यायालय ने फैसला दिया है।

उच्चतम न्यायालय ने केंद्र एवं राज्य सरकारों से हलफनामे भी लिए कि उसके द्वारा दी जाने वाली राय मानी जाएगी, जबकि अनुच्छेद 143 के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई राय बाध्यकारी नहीं होती और अंत में रेफरेंस वापस कर दिया गया।

उच्च न्यायालय को फैसला देने से रोकने के लिए अंतिम वक्त तक प्रयास किया गया और उच्चतम न्यायालय ने शुरू में ऐसा निर्देश उच्च न्यायालय को दे भी दिया जिस कारण निर्णय 24 सितंबर को सुनाया नहीं जा सका। एक तीसरे पक्ष ने बातचीत के जरिए समस्या हल करने के लिए उच्च न्यायालय से निर्णय न सुनाए जाने की गुहार लगाई थी, जिसे अदालत ने न सिर्फ खारिज कर दिया, बल्कि याचिकाकर्ता पर जुर्माना भी ठोंक दिया। इसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की गई, जिस पर अदालत ने उच्च न्यायालय को निर्णय सुनाने से रोका, परंतु बाद में बिना कोई कारण बताए याचिका खारिज कर दी। तकनीकी रूप से याचिका खारिज करने के लिए कारण बताने की जरूरत नहीं है, परंतु इस मामले में चूंकि उच्चतम न्यायालय ने शुरू में उच्च न्यायालय को अपना निर्णय सुनाने से रोका, इसलिए बेहतर होता कि अदालत ऐसा करने और फिर याचिका को खारिज करने का कारण बताती। उच्च न्यायालय उच्चतम न्यायालय के अधीन नहीं है-केवल उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है। संविधान में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय को अपना फैसला देने से रोके। केवल संविधान के अनुच्छेद 142 में उसे पूर्ण न्याय करने के लिए कोई भी निर्णय देने का अधिकार है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य स्पष्ट कानूनों की अनदेखी कर अनुच्छेद 142 का सहारा लिया जाए।


उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की एक खंडपीठ ने 1992 में पंजाब बनाम सुरेंद्र कुमार मामले में व्यवस्था दी कि उच्चतम न्यायालय के लिए कारण बताना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि वह सर्वोच्च है। यहां जवाबदेही का सवाल उठता है। उच्च न्यायालय के निर्णय की सराहना के साथ-साथ कई आधारों पर आलोचना भी हो रही है। विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बाटने पर हिंदू एवं मुस्लिम, दोनों पक्ष हैरान हैं कि यदि सुन्नी वक्फ बोर्ड को जमीन की मिल्कियत नहीं है तो उसे एक तिहाई क्यों दी जाए और है तो पूरा क्यों नहीं दिया जाए। यह सच है कि निर्मोही अखाड़ा तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड, दोनों के मालिकाना हक की याचिकाएं खारिज हुई हैं। इसलिए जमीन को तीन भागों में बाटना कानूनी कम, पंचायती फैसला अधिक प्रतीत होता है। एक और बात यह भी कही जा रही है कि राम जन्मस्थान के बारे में निष्कर्ष पर पहुंचने में अदालत अपनी परिधि से बाहर चली गई है। यह आलोचना पूरी तरह सही नहीं है। हिंदू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जिसका कोई संस्थापक नहीं है और यह पक्का पता नहीं है कि उसकी शुरुआत कब हुई। मिथक धर्म का एक अभिन्न अंग है और उन धमरें में भी मिथक है जिनके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज मौजूद हैं। मिथक में इतिहास से ज्यादा बल होता है।
लंबे कालखंड के बाद आस्था के कारण मिथक को लगभग ऐतिहासिक दर्जा मिल जाता है। राम का जन्मस्थान तो मिथक के आधार पर ही तय हो सकता है, इतिहास के आधार पर नहीं।


परंपरा एवं मिथक का महत्व इसी से पता चलता है कि इसी मामले में अदालत ने भगवान श्रीराम विराजमान को इस विवाद में एक पक्ष माना है। कानून को न जानने वाले यह सुनकर हैरान हैं कि उच्च न्यायालय ने उन्हें एक पक्ष माना, जिनकी ओर से देवकी नंदन अग्रवाल मुकदमा लड़ते रहे। दरअसल, यह भारतीय परंपरा रही है कि कोई भी व्यक्ति ट्रस्ट बनाकर किसी देवी-देवता के नाम अपनी संपति दे सकता है। उस देवता को किसी मुकदमे में कानूनी व्यक्ति माना जाता है। 1969 में उच्चतम न्यायाल ने योगेंद्र नाथ लश्कर वनाम आयकर आयुक्त में प्रीवी काउंसिल निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा कि उस पर आयकर भी लगेगा। तो पर्रपरा के तहत किसी मूर्ति को जीते-जागते इंसान के रूप में कानूनी मान्यता सैकड़ों वषरें से मिली हुई है। यह पक्का है कि इस निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जाएगी, किंतु बातचीत के द्वारा समाधान ढूंढने का सुझाव अभी भी काफी लोग दे रहे हैं। यदि बातचीत के जरिए सद्भाव के माहौल में कोई स्वीकार्य हल निकल जाए तो बहुत अच्छा होगा। नागरिक समाज का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यही होता है कि विभिन्न समूहों के बीच सामंजस्य एवं संतुलन बनाए रखे ताकि समाज में सौहार्दपूर्ण माहौल हो। हीगेल के अनुसार व्यक्ति पहले परिवार का सदस्य होता है, फिर समुदाय का और फिर समुदाय के जरिए नागरिक समाज का। चूंकि इन छोटे-छोटे समूहों में टकराव होते रहते हैं, इसलिए उसे रोकने के लिए एक बड़े नागरिक समाज की जरूरत होती है।


(लेखक : वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


(साभार : दैनिक जागरण, 03/10/2010)

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