Saturday, October 30, 2010

संवाद का नया सोपान

आशुतोष भटनागर
श्रीरामजन्मभूमि के मुकदमे का बहुप्रतीक्षित फैसला गत 30 सितम्बर को सुनाया गया। निर्णय के अनुसार जिस स्थान पर आज श्रीरामलला विराजमान हैं वही श्रीराम का जन्मस्थान है। इसके लिये विद्वान न्यायाधीशों ने आस्था को आधार बनाया है। एक दृष्टि से यह देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था की जीत है।

फैसले की न्यायिक समीक्षा संबंधित पक्ष और न्यायवेत्ता करेंगे, यदि कोई भी पक्ष इस फैसले से असंतुष्ट होकर सर्वोच्च न्यायालय में गया तो वहां भी इसकी संवैधानिक समीक्षा होगी। किन्तु चार दशक से अधिक तक जिला न्यायालय और उसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ में चले इस विवाद के समाधान का आधार जनश्रुति और लोक आस्था ही बनी, यह निर्विवाद है।

दो दशक पहले रामजन्मभूमि का आन्दोलन जब चरम पर था, तब भी इसे आस्था का प्रश्न मानते हुए हल करने की मांग अनेक बुद्धिजीवियों ने की थी। उन्होंने मुस्लिम समाज से भी अनुरोध किया था कि वह इस मुद्दे पर बहुसंख्यक समाज की भावनाओं का आदर करे तथा स्वेच्छा से वह स्थान हिन्दुओं को सौंप दे तो देश में राष्ट्रीय एकता को पुष्ट किया जा सकेगा।

दुर्भाग्य से छद्मधर्मनिरपेक्ष नेताओं ने इस मुद्दे पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकीं और इस मुद्दे पर दोनों समुदायों के बीच आम सहमति बनने में विघ्न-बाधाएं उपस्थित करते रहे। तीन पूर्व प्रधानमंत्रियों क्रमशः स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर तथा नरसिम्हाराव के कार्यकाल में वार्ता की पहल की गयी किन्तु क्षुद्र राजनीति के चलते वार्ता सिरे चढ़ने से पहले ही प्रयास दम तोड़ गये।
 
आस्था के प्रश्न सदभाव से ही हल हो सकते हैं। चुनौती भरे स्वर और धमकी भरे नारे इनका हल नहीं सुझाते बल्कि वातावरण में विष घोलते हैं। 1989-90 में तत्कालीन सत्ता द्वारा अयोध्या में परिंदे को पर भी न मारने देने की चुनौती और शांतिपूर्ण ढ़ंग से कारसेवा के लिए तत्पर रामभक्तों पर गोली चला कर वातावरण को इतना विषाक्त बना दिया कि दोनों समुदायों के बीच विश्वास बहाली के प्रयास फलीभूत न हो सके। परिणामस्वरूप सौमनस्य का जो वातावरण आज बनता दिख रहा है वह तब से दो दशक दूर हो गया।

इन दो दशकों में सभी राजनैतिक दल सत्ता में रह चुके हैं और समाज ने उन सभी की परख कर ली है। मुस्लिम समुदाय के बीच से आज जो मस्जिद से अपना दावा छोड़ने, यहां तक कि श्रीराममंदिर के निर्माण के लिये सहयोग करने तथा विवाद को यहीं विराम देने की जो पहल सामने आयी है वह जहां एक ओर 6 दिसम्बर 1992 के प्रेत को हमेशा के लिये दफना देने की कोशिश है वहीं क्षुद्र स्वार्थ वाली अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति पर कठोर टिप्पणी है।

आज बात की जा रही है कि इन दो दशकों में सरयू में बहुत पानी बह गया है। किन्तु बहते पानी के साथ समय बहता है, आस्था नहीं। आस्था की जड़ें संस्कृति की भूमि में गहरे तक पैठती हैं। भारत जैसे देश में बसने वाले लोगों की आस्था उनकी पांथिक दूरियों से बंटती नहीं। साझा पूर्वजों की राख से जुड़ कर उनकी आस्था की जड़ें धरातल के नीचे कहां जा कर एकमेक हो जाती हैं, यह वही समझ सकता है जो देश की संस्कृति को अपने अंदर जीता है।


दो दशक बाद एक बार पुनः यह अवसर आया है कि व्यापक राष्ट्रीय हित में सभी पक्ष एक साथ मिल बैठ कर सर्वसम्मति से श्रीरामजन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर बनाने का निर्णय करें। भ्रम अथवा विवाद का बिन्दु वह गर्भगृह था जिसके संदर्भ में उच्च न्यायालय अपना फैसला पहले ही सुना चुका है। उपासना स्थल के रूप में स्थानीय नागरिकों को यदि मस्जिद की आवश्यकता अनुभव होती है तो कुछ दूर हट कर उसका निर्माण किया जा सकता है। किन्तु इसमें यह समझदारी दिखानी आवश्यक है कि दोनों उपासनास्थलों के बीच इतनी दूरी अवश्य रहे ताकि दोनों समदायों के मध्य आज उत्पन्न सौहार्द भविष्य में भी किसी की ओछी राजनीति अथवा कट्टरता का शिकार न बन सके।

श्रीरामजन्मभूमि पर बनने वाला मंदिर न केवल राष्टीय एकता को पुष्ट करेगा अपितु तुष्टीकरण के नाम पर क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों को पूरा करने के कुत्सित खेल पर भी विराम लग सकेगा। राष्टीय समाज के रूप में भारत के सभी नागरिकों को समान रूप से आगे बढ़ने के अवसर सुलभ हों तथा परस्पर सहयोग के आधार पर भारत विश्वशक्ति बने, इसके लिये सामाजिक सौहार्द पहली शर्त है। उच्च न्यायालय के निर्णय ने यह स्वर्णिम अवसर उपलब्ध कराया है। अपने सभी मतभेद भुलाकर यदि सभी समुदाय साथ आते हैं तो यह राम मंदिर के साथ ही राष्ट्रमंदिर की स्थापना का पर्व बनेगा। संवाद का यह सोपान समृद्धि के शिखर की आधारशिला बनेगा यह विश्वास है।

(लेखक : 'विश्व हिंदू वॉयस' के सलाहकार सम्पादक हैं)

(साभार : www.vhv.org.in, 04/10/2010)

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