Monday, October 25, 2010

कांग्रेस की बैचेनी

बलबीर पुञ्ज

कांग्रेस महासचिव और प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल गांधी के हाल के बयान को काग्रेस के उस इतिहास की पृष्ठभूमि में देखना चाहिए जिसमें अल्पकालिक क्षुद्र राजनीतिक हितों के लिए राष्ट्रहित की बलि देने के अनेक दृष्टात हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सिमी को समकक्ष रखकर राहुल गाधी ने न केवल राष्ट्रवादी शक्तियों को कमजोर किया है, बल्कि आईएसआई के इशारे पर चलने वाले राष्ट्रघाती तत्वों को प्रोत्साहित भी किया है। अयोध्या मामले में अदालत का निर्णय आने के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के कुछ वगरें में चाहे थोड़ी-बहुत निराशा रही हो, किंतु किसी पक्ष ने इस निर्णय पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। सरसंघचालक मोहन भागवत ने जब कहा कि 'न कोई हारा, न कोई जीता' तो उन्होंने भारत की बहुलतावादी सनातनी संस्कृति का ही परिचय दिया था, जिसका संघ ध्वजवाहक है। स्वाभाविक रूप से जिन लोगो की राजनीति सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलमानों के कट्टरवादी वर्ग के सहारे चलती है उन्हें निराशा जरूर हुई है। इस परिदृश्य में एक ओर तो वामपंथी बुद्धिजीवी तो दूसरी ओर मुलायम सिंह जैसे नेता कूद पड़े हैं। यह उसी मानसिकता से प्रेरित है जिसने इस देश के रक्तरंजित बंटवारे की नींव रखी। अलग पाकिस्तान के सृजन में कम्युनिस्टों ने यदि दाई की भूमिका निभाई तो शेष भारत में सामाजिक खाई पैदा कर सेक्युलरिस्ट अब भी देश तोड़ने में जुटे हैं। राहुल गाधी, जिनके नेतृत्व में काग्रेस सन 2012 में उत्तर प्रदेश जीत लेने का सपना संजोए बैठी है, ने इस प्रतिस्पद्र्धात्मक राजनीति के कारण ही राष्ट्रहित की चिंता किए बगैर एक गैर जिम्मेदाराना बयान दिया है।



राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रहित को तिलाजलि देने की काग्रेसी परंपरा के कई ज्वलंत उदाहरण जनमानस में कैद हैं। सन् 1947 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर पहला आक्रमण किया तो कार्रवाई करने में विलंब किया गया। बाद में जब हमारी सेना दुश्मनों को खदेड़ती हुई आगे बढ़ रही थी तो शेख अब्दुल्ला के कहने पर सेना के पाव में बेड़िया डाल दी गईं। जो क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में तब रह गया वह आज भी उसके कब्जे में है और वहा भारत को तबाह करने के लिए आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाए जाते हैं। महाराजा हरि सिंह के भारत में विलय की रजामंदी के बावजूद पंडित नेहरू ने जनमत सर्वेक्षण की माग मान ली। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर उन्होंने इसका अंतरराष्ट्रीयकरण भी किया। 


आजादी के बाद पंडित नेहरू और उनके साम्यवादी सहोदरों ने एक सुनियोजित साजिश के तहत राष्ट्रवाद को हाशिए पर डालने का प्रयास किया, जिसका संघ ने हर स्तर पर प्रतिरोध किया। संघ आजादी के पूर्व से लेकर अब तक राष्ट्रोत्थान को ही अपना लक्ष्य मानता आया है। महात्मा गाधी की हत्या से पंडित नेहरू को संघ से बदला लेने का मौका मिल गया। संघ को प्रतिबंधित किया गया, किंतु न्यायपालिका ने उसे इस कलंक से मुक्ति दी। कम्युनिस्टों के प्रभाव में पंडित नेहरू ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का मुगालता पाला। कहीं से आक्रमण का कोई खतरा न बताकर सेना को साधनहीन रखा गया। इसकी परिणति सन 62 में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय में हुई। संघ को लेकर पंडित नेहरू की भ्राति सन 62 के चीनी हमले के दौरान टूटी और उसके परिमार्जन के लिए ही उन्होंने 1963 के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए संघ को न्यौता भेजा था। 


12 जून, 1975 को जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाधी के निर्वाचन को निरस्त कर दिया तो सत्ता खोने के भय से उन्होंने 25 जून, 1975 को देश पर आपातकाल थोप दिया, नागरिक अधिकारों पर पाबंदी लगा दी। विपक्षी दलों के नेताओं को बंदी बनाकर उन्हें यातनाएं दी गईं। काग्रेस ने सत्ता की खातिर प्रजातंत्र को रौंद कर भारत में अधिनायकवाद लाद दिया। राजीव गाधी ने शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को संविधान संशोधन कर पलट डाला। आरिफ मोहम्मद खां जैसे उदारवादी मुस्लिम नेता की आवाज बंद कर कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए। बोफोर्स काड के दलाल क्वात्रोच्चि को बचाया गया। 


काग्रेस और कम्युनिस्टों ने होली की छुट्टी वाले दिन केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर एक घोषित आतंकवादी अब्दुल नासेर मदनी को पैरोल पर रिहा करने के लिए सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया। दिल्ली के बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों को बेकसूर बताने के लिए सेक्युलरिस्टों में होड़ लग गई और जिस आजमगढ़ में आतंकवादियों के सुराग में कई राज्यों की पुलिस दबिश दे रही थी वह काग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह जैसे तमाम सेक्युलरिस्टों के लिए मक्का बन गया। काग्रेस का पिछले साठ साल का रिकॉर्ड मजहबी उन्माद और कट्टरता को प्रोत्साहित करने का रहा है, किंतु कालक्रम में काग्रेसी पदचिह्नंों का अनुसरण कर वामपंथी, सपा-बसपा-राजद आदि दलों ने काग्रेस के मुस्लिम जनाधार में सेंधमारी कर ली। काग्रेस लंबे समय से खोए इस जनाधार को वापस पाने की जुगत में है, किंतु मुलायम सिंह बाबरी के हश्र के लिए काग्रेस को कसूरवार ठहरा रहे हैं, ताकि खुद को मुसलमानो का रहनुमा साबित कर सकें। 1949 में जब अयोध्या में मूर्तिया रखी गईं, तब काग्रेस का राज था। 1986 में जब ताला खुला और हिंदुओं को पूजा-अर्चना की छूट मिली, तब राजीव गाधी प्रधानमंत्री थे। विवादित ढांचे का ध्वंस हुआ तो दिल्ली में काग्रेस की सरकार थी और आज जब विवादास्पद स्थल के मालिकाना हक का फैसला आया है तो काग्रेस ही सत्ता में है। मुलायम सिंह के इन आरोपों से उत्तर प्रदेश में मिशन 2012 में जुटी काग्रेस का घबराना स्वाभाविक है। 


जब मजहब के आधार पर पाकिस्तान का जन्म हुआ तो स्वाभाविक था कि शेष भारत भी खुद को हिंदू राष्ट्र घोषित कर देता, किंतु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि भारत में मत या पंथ, सम्राट अशोक के अपवाद को छोड़, कभी राज्याश्रित नहीं रहा। यह निजी आस्था का विषय रहा है। इसीलिए राम को पूजने वाले हों या रहीम के मानने वाले, सबको देश की सनातन संस्कृति में बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। भारत एक पंथनिरपेक्ष देश संविधान के कारण नहीं है, बल्कि इस देश की संस्कृति और जीवन मूल्यों में ही सर्वधर्म समभाव समाहित है। संघ इसका पक्षधर रहा है कि मजहब बदलने से राष्ट्रीयता नहीं बदलनी चाहिए। इस बहुलतावादी संस्कृति को वामपंथी ब्राड वाले 'सेक्युलरिज्म' से ही खतरा है। काग्रेस इस ब्राड को अपनी राजनीतिक आवश्यकता के अनुसार प्रोत्साहन देती रही है। सिमी और संघ की तुलना कर राहुल गाधी ने राष्ट्रहित की चिंता किए बगैर इसी 'ब्राड' को आगे बढ़ाया है।
(लेखक : भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)
(साभार : दैनिक जागरण, 12/10/2010)

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