Wednesday, October 27, 2010

अयोध्या की पदचाप और संघ मे बदलाव की आहट


आशुतोष
ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब मैंने लिखा था कि संघ परिवार और बीजेपी में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद पर संघ परिवार और बीजेपी के रवैये ने मेरी धारणा को और पुष्ट किया है। अयोध्या मसले पर संघ परिवार हमेशा से ये कहता रहा है कि अदालतें आस्था के सवाल का निपटारा नहीं कर सकतीं। लेकिन अब सुर बदले हुए हैं, हमलावर तेवर गायब हैं। आज वो बड़ी मुलायमियत से कहते हैं कि वो अदालत के फैसले का सम्मान करेंगे। भारतीय संविधान के तहत कोई भी फैसला आये वो मानेंगे। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली में महिला पत्रकारों से कहा कि राम मंदिर पर कानूनी विकल्प खुले हैं। और अगर अदालत का फैसला संघ परिवार के खिलाफ हुआ तो लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीके से समाधान खोजने की कोशिश की जाएगी। अयोध्या मसले पर आग उगलने वाले विनय कटियार बोले वो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे और वहां से भी न्याय नहीं मिला तो संसद में मुद्दा उठाएंगे। लाल कृष्ण आडवाणी पहले ही पार्टी सांसदों को ताकीद कर चुके हैं कि कोई भी नेता अदालती फैसले के पहले या बाद में भड़काऊ बयान न दे और न ही जश्न मनाए।
 
दरअसल 2004 में बीजेपी की हार से संघ परिवार को झटका तो लगा था लेकिन हार के असली कारणों को खोजने की कोशिश नहीं हुई। उसे लगा कि इतिहास में ऐसा कभी-कभी हो जाता है। यही कारण है कि 2009 आते-आते बीजेपी ने एक बार फिर आडवाणी पर दांव लगा दिया। इस चुनाव को आडवाणी 'द आयरनमैन' बनाम मनमोहन 'दे वीकेस्ट' बनाने की कोशिश बीजेपी की तरफ से हुई पर उसे मुंह की खानी पड़ी। अब संघ परिवार को लगा कि हिंदू आंदोलन से निकला उनका 'सबसे मजबूत सिक्का' अगर कांग्रेस के 'सबसे कमजोर सिक्के' से मात खा गया है तो जरूर कोई ऐसी बुनियादी बात होगी जिसको वो समझने में नाकामयाब रहे। मंथन शुरू हुआ। सुधीर कुलकर्णी जैसे लोगों ने जब कहा कि संघ परिवार और बीजेपी को अपनी विचारधारा और रणनीति में मौलिक परिवर्तन करना होगा तब ऊपरी तौर पर उसे नकार तो दिया गया लेकिन उसे ये समझ में आने लगा कि तेजी से बदलते हिदुस्तान में पहले की तरह कट्टरवादी और आक्रामक नहीं रह सकते। उसे अगर सर्वसाधारण का मन जीतना है तो उस भी उसी की तरह होना होगा। ग्लोबलाइजेशन अगर नेशन-स्टेट के फर्क को खत्म कर रहा है तो देश के अंदर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण तेजी से जाति, धर्म और क्षेत्र की सीमाओं को मिटा रहा है और ऐसे में व्यक्ति को विभिन्न खांचों मे देखने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी।
 
संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व ने अंदर झांकना शुरू किया। उसे लगा कि मौलिक हिंदू धारणा को ही नए सिरे से देखने की जरूरत है। आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता ने जब मुझसे बातचीत मे कहा कि 'हिंदू शब्द तो एकता की जगह विभाजन का प्रतीक बन चुका है' तो मैं चौंका। मुझे भी हिंदू आपस में कई खंडो में बंटा दिखा। वो हिंदू जिसको एक करने और जिसको मजबूत करने के लिये हेडगेवार ने 1925 में आरएसएस का गठन किया था। यानी जिस मकसद के लिये आरएसएस को बनाया गया जो हिंदू प्रोजेक्ट अपनाया गया वो ही आज थका मांदा हारा हुआ किसी कोने में सिसक रहा है। आज क्या संघ ये कह सकता है कि हिंदू एक है? कदापि नहीं। वो कहीं दलित है तो कहीं पिछड़ा। कहीं वो अगड़ी जाति है तो कहीं आदिवासी, कहीं मराठी, तो कहीं बिहारी, कहीं कट्टरपंथी तो कहीं उदारवादी, कहीं वो वामपंथी है तो कहीं वो दक्षिणपंथी। पिछड़ा और दलित एक दूसरे को फूंटी आंख नहीं सुहाते। सवर्णों और पिछड़ों में छत्तीस का आंकड़ा है। महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमले हो रहे हैं और ये हमले वो कर रहे है जो अपने आप को हिंदू कहते हैं और हिंदुवादी राजनीति करने का दंभ भरते हैं। हिंदू दलित बाबा साहेब आंबेडकर की अगुआई में बौद्ध होने को मजबूर हैं।

उत्तर भारत में पिछड़ी जाति अपने को मुसलमानों के ज्यादा करीब पाती है और राजनीति के मैदान में वो उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है। सवर्ण हिंदू के साथ चलने से उसे परहेज है। उदारवादी हिंदू आज की तारीख में अल्पसंख्यकों की तुलना में कहीं अधिक कट्टरवादी हिंदुओ का विरोधी है। हकीकत तो ये है कि गुजरात के दंगे हों या फिर राम मंदिर का मसला उदारवादी हिंदू आरएसएस के हिंदू का सबसे बड़ा दुश्मन है। मुसलमानों का सबसे बड़ा रक्षक भी यही उदारवादी हिंदू है और इसी वजह से पिछले पिचासी सालों से अस्सी फीसदी हिंदूओ के देश में आरएसएस महज आठ फीसदी हिंदुओं को ही अपनी तरफ आकर्षित कर पाई है। आज की सचाई यही है कि 21 सदी में लोग हिंदुत्व शब्द सुनते ही समझने लगते हैं कि ये समुदायों के बीच जहर घोलने का कोई फार्मूला है, ये वो लोग हैं जो एक समुदाय विशेष में शत्रु तलाशते हैं, जो दंगे कराते हैं, जिनका नाम कभी गुजरात दंगों से जुड़ता है तो कभी कंधमाल से तो कभी कर्नाटक में चर्च हमले से। चर्च हमले के समय आरएसएस के एक दूसरे वरिष्ठ नेता ने अनौपचारिक बातचीत में मुझसे कहा था कि गुजरात दंगों से हमें निकलने में पांच साल लग गए। अब इसकी वजह से फिर हम दो साल पीछे हो गए। यानी संघ को एहसास है कि कंधमाल, गुजरात जैसे हादसों ने संघ के नाम और साख पर बट्टा लगाया है।
 
संघ समझ रहा है कि अब हिंदुत्व को नये सिरे से परिभाषित करना होगा। संघ की सोच मे ये बात काफी तेजी से उभरी है कि 'हिंदू' से ज्यादा 'इंडिया' पर जोर देने से वैचारिक संकट से निपटा जा सकता है। 'हिंदुत्व' की जगह 'राष्ट्रवाद' नई पीढ़ी को ज्यादा आकर्षित करेगा। इंडिया पर किसी को एतराज क्यों होगा? हिंदू बोलने पर तो मुसलमान और ईसाई भड़क सकता है लेकिन इंडिया कहने पर जुड़ना उसकी मजबूरी होगी। फिर इंडिया कहने पर जाति आधारित ब्राहमणवादी व्यवस्था का भी बोध नहीं होता। सो दलितों और पिछड़ों को भी एक झंडे के तले लाने में आसानी रहेगी। स्ट्रेटजी के तौर पर ये सोच कारगर लगती है पर सवाल ये है कि क्या इस नयी सोच को स्थाइत्व का जामा पहनाया जा सकेगा और क्या हिंदुत्व के नाम पर लामबंद होने वाला स्वयंसेवक इस वैचारिक बदलाव के लिये तैयार है? मोहन भागवत के लिए ये आसान नहीं है लेकिन अयोध्या पर बदले सुर मुझे भरोसा देते हैं।

(लेखक : आईबीएन-7 के प्रबंध सम्पादक हैं) 

(साभार : www.khabar.ibnlive.in.com, 20/09/2010)

No comments:

Post a Comment