Tuesday, October 26, 2010

बीस साल का सफर और अयोध्या

शशि शेखर 

अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खण्डपीठ ने जो फैसला किया, उस पर देश की प्रतिक्रिया से लोग बम-बम हैं। इतनी शांति और संयम से मिश्रित आबादी वाला यह देश अदालती फैसले को स्वीकार करेगा, इस उम्मीद की छतरी तो हर पढ़ा-लिखा शख्स अपने ऊपर ताने था। फिर भी आशंकाओं के ओले सिहरन पैदा कर रहे थे।


अब यह कुहासा छंट चुका है तो जाहिर है जो लोग खुश हैं, वे अपनी प्रसन्नता के कारणों की समीक्षा कर रहे हैं। कोई कह रहा है कि देश बदल गया है। कोई कह रहा है कि इससे दुखी लोगों के मन का गुबार छंट गया है। किसी को लग रहा है कि मौजूदा दुनिया में अब धार्मिक कट्टरता की कोई गुंजाइश नहीं रह बची है। तरह-तरह के तर्क हैं। यह बताने की जरूरत नहीं कि तर्क अक्सर सत्य की रोशनी पर बादलों की तरह छा जाते हैं।


फिर भी अगर हम तह तक जाना चाहें तो एक बार खुद के अंदर झांकना होगा। अपने घर की कहानी से शुरू करता हूँ। मेरा बेटा जब पैदा हुआ उस दिन कृष्ण जन्माष्टमी थी पर फ़िजां में रामलला के तराने घोलने की कोशिश हो रही थी। अष्टमी की उस रात को भी कुछ लोगों को उम्मीद थी कि वे इस देश की धर्मपरायण जनता की भावनाओं को अपनी तरफ मोड़ सकेंगे और पिछले चार दशकों से संजोई सत्तालिप्सा को कभी न कभी पूरा कर लेंगे।


हम जैसे लोग समझते थे कि ऐसा नहीं होगा पर भविष्य की घटनाओं ने आकार लेना शुरू कर दिया था। बेटा जब घुटनों पर चलना सीख रहा था तो आंदोलन दौड़ने लग पड़ा था। जब वह तुतलाकर बोल रहा था तो कथित आंदोलनकारियों के नेतृत्व की एक नई जमात दहाड़ रही थी। कुछ साधु थे, कुछ संत और कुछ मुंह से आग बरसाती साध्वियां थीं, जो न जाने कहां से नमूदार हो गई थीं। लड़का जब लड़खड़ाता हुआ अपने पैरों पर चलने की कोशिश कर रहा था तो रामभक्त अयोध्या की ओर दौड़ लगा रहे थे।


सात दिसम्बर 92 की सुबह मैं थोड़ा देर से जागा था, क्योंकि पिछली रात अखबार के दफ्तर में काम नहीं तनाव जिया था। चाय पीते हुए देखा कि वह दौड़ता हुआ लड़खड़ाया, गिरा और फिर वहीं बैठकर रोने लगा। अगले कई सप्ताह बल्कि यूं कहें कि मुंबई के पहले धमाकों तक का समय इस देश के लिए भी लड़खड़ाहटों, गिरने के दौर-दौरों और क्रंदन का था।


आज मेरा बेटा चेतना सम्पन्न भारतीय गबरू जवान है। वह पूछता है कि अयोध्या के विवाद पर इतना सहमापन क्यों? उस समय के खून-खराबे पर उसका सवाल होता है कि क्या देश के लोगों के पास करने को कुछ और नहीं था? वह धार्मिक है, पर धर्मांध नहीं। ईश्वर उसे किसी व्रत-उपवास या अर्चना से मिलता नहीं दिखता। उसका जीने का एक अंदाज है और धारयेत इति धर्म:के भाव को वह अपनी तरह से ग्रहण करता है।


मैं उसके तमाम साथियों से मिला हूं। हम में से किसी और की तरह ही उसके भी हर जाति और धर्म के मित्र हैं। कोई रोजा रखता है, तो कोई केश और कड़ाधारी है पर उसूल सब के एक जैसे हैं। मेरे बेटे से तीन साल बड़ी मेरी बेटी भी लगभग वैसी ही है। इन नौजवानों को देखता हूं तो लगता है कि हम एक तरक्कीपसंद देश में रह रहे हैं। जहां दंगे सिर्फ राह के रोड़े हैं। ये नौजवान अपनी प्रगति के रास्ते में कोई बाधा नहीं चाहते।


क्या हर भारतीय नौजवान ऐसा ही सोचता है? किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी पर यह सच है कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश में 55 प्रतिशत लोग इसी आयु वर्ग के हैं। उनमें और हमारी पीढ़ी की सोच में जमीन-आसमान का अंतर है।


शायद यही वजह है कि जो लोग बीस साल पहले आग उगलते नजर आते थे, वे अब काफी संतुलित हैं। जो कहते थे कि अयोध्या का मामला आस्था का है, अदालत का नहीं। वे भी कानून के सहारे ही विवाद की नैया पार लगाना चाहते हैं। यह 21वीं शताब्दी का भारत है। दुनिया से कदमताल करता हुआ। विकास के लिए उतावला। जवानी के जोश से भरपूर।


फिर भी यह मान लेना कि हमारे बीच से खतरा टल गया है, नादानी होगी। अदालती फैसले के नफे-नुकसान का आकलन करने के बाद राजनेता फिर से दुकानदारी पर उतर आए हैं। कोई फैसले को मुसलमानों के लिए सदमा बता रहा है तो किसी को इसमें कुछ और नजर आ रहा है। ऐसा लगता है जैसे न्यायालय के निर्णय के वक्त जो संयम सौ टंच का सोना साबित हुआ था, उसे एक बार फिर से कसौटी पर कसा जाना है।


देश के लोगों को इन वोटयाचकों की बाजीगरी को समझना होगा। वे पहले भी कई माताओं की कोख उजड़वा चुके हैं। खून उनके मुंह लग चुका है। उन्हें फिर से खूंरेजी रचने में कोई संकोच नहीं। याद रखिएगा, दुनिया अब बहुत छोटी हो गई है। सांप्रदायिक हिंसा में हुई एक मौत पूरे ग्लोब की खबर बन सकती है। एक कर्फ्यू आपको और आपके शहर को महीनों पीछे ले जा सकता है। अमन और अमान कायम रखना सिर्फ सरकारों का नहीं, हमारा भी काम है। पिछले दिनों हम इस नेक कर्तव्य को अंजाम देने में बखूबी कामयाब रहे हैं। इस सिलसिले को बनाए और बढ़ाए रखना होगा।


जब बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ था, तब बहुतों के मुंह से निकला था- हे राम!कहा जाता है कि महात्मा गांधी जब गोडसे की गोलियों से आहत होकर देह छोड़ रहे थे, तब उनके मुंह से आखिरी यही दो शब्द निकले थे। तब से लेकर आज तक हे रामको कुछ शोक, कुछ श्रद्धा और कुछ बापू की याद के तौर पर ही याद किया जाता है।


छ: दिसम्बर, 92 को भी तमाम लोगों के मन में यह सवाल उठा था कि गांधी होते तो आज क्या करते? पता नहीं गांधी के रहते ऐसा हो भी पाता या नहीं। पर इतना तय है कि इस अदालती फैसले के बाद देश ने जिस संयम का परिचय दिया है, उससे वे खुश जरूर होते।


पिछले दिनों कश्मीर में जब तमाम नौजवान मर रहे थे, तब भी मेरे मन में यह सवाल उठा था कि अगर आज बापू होते तो इस स्वर्ग जैसी घाटी को नर्क में तब्दील होने से जरूर बचा लेते। एक टीस भी उठ आई थी कि क्यों आज हमारे बीच ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसके पास इतना आत्मबल हो कि वह संकट की ऐसी सघन घड़ी में खुद को दांव पर लगा दे। उसके आत्मबल के आगे हिंसक हत्यारे भी नतमस्तक हो जाएं।


अदालती फैसला आने के बाद के इन 48 घंटों में पता नहीं क्यों यह उम्मीद फिर से बलवती हो गई है कि इस देश की मिट्टी में बुद्ध, महावीर और गांधी को गढ़ने की अद्भुत क्षमता है। हमारे बीच से ही भलाई के प्रतीक जन्मते हैं। बरसों बाद। इन दिनों मैंने सद्भाव को देश के सर्वाधिक लोगों के बीच साझा भाव की तरह पनपते देखा। गांधी जयंती के आसपास राष्ट्रपिता को इससे बेहतर श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है?
(लेखक : हिन्दुस्तान सामाचार पत्र के प्रधान सम्पादक हैं)


(साभार : हिन्दुस्तान, 03/10/2010)

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