Tuesday, October 26, 2010

अयोध्या से कितना आगे बढ़े हम

राजदीप सरदेसाई


अयोध्या संकट का एक बिंदु तो बना हुआ है, लेकिन यह वास्तव में एक ऐसा ऐतिहासिकअवसर भी हमारे सामने पेश करता है जहां बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक समीकरण को दोबारा परिभाषित किया जा सके।

मैं यह पहले से मानता रहा हूं कि 6 दिसंबर, 1992 को जो हुआ, वह चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों के दौर में नहीं हुआ होता। अयोध्या में विवादित स्थल को घेरे हुए माइकों और ब्रॉडकास्ट वैनों की भीड़ के बीच उत्तर प्रदेश सरकार या केंद्र के लिए इस बात को नकारना असंभव हो जाता कि उन्हें ग्राउंड जीरो पर हो रही घटनाओं की जानकारी नहीं है। 1992 में अकेले दूरदर्शन था, जिसने बीबीसी द्वारा घंटों बाद भेजी गई विध्वंस की पहली धुंधली तस्वीरों के साथ इस खबर का संशोधित संस्करण प्रसारित किया था। फिर इसमें क्या कोई अचरज रह जाता है कि भ्रामक सूचना फैलाने और खुराफात करने की उस वक्त पर्याप्त गुंजाइश थी, जिसने दंगों को जन्म दिया?

आज देश में 120 से ज्यादा न्यूज चैनल हैं। चैनलों के बीच मची गलाकाट होड़ को बड़े बेहतरीन तरीके से पीपली लाइवमें दिखाया गया है, लेकिन विडंबना ही कहेंगे कि इस माध्यम के इसी सनक भरे चरित्र ने पिछले हफ्ते चौबीसों घंटे लगातार चौकीदार की अपनी भूमिका निभाई जब अयोध्या पर फैसला आया, और इस तरह यह सुनिश्चित कर दिया कि गड़बड़ी फैलाने वाले संभावित तत्वों के लिए छुपने की कोई जगह न बचे। अधिकांश खबरिया चैनलों ने सचेतन तौर पर कट्टरपंथी आवाजों को पेश करने से परहेज किया, यह इस बात का संकेत है कि खबरों के इस पागलपन के बीच अब भी संयमित और जिम्मेदार पत्रकारिता के लिए थोड़ी जगह बची हुई है।

पिछले 19 वर्ष के दौरान आए तमाम बदलावों में एक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति है, जिसने सुनिश्चित किया कि 1992 की सर्दियों में जिस भयावहता के हम गवाह रहे, उसका दुहराव 30 सितंबर, 2010 को न होने पाए। सबसे बड़ा बदलाव हालांकि यह आया है कि भारत का उभार एक आर्थिक ताकत के रूप में हुआ है। 1992 में अर्थव्यवस्था 2.2 फीसदी की दर से बढ़ रही थी, आज यह 9 फीसदी के आसपास मंडरा रही है। 1992 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 2.2 अरब डॉलर था, आज यह 287 अरब डॉलर है। तब सेंसेक्स 2000 अंकों के आसपास था, आज यह 20,000 का कांटा पार कर चुका है।

आर्थिक ताकत बढ़ने के साथ लोगों की आकांक्षाएं भी बढ़ी हैं। 1992 में जहां प्रति व्यक्ति आय 1.8 लाख रुपए सालाना थी, आज यह 5.16 लाख रुपए सालाना है यानी करीब तीन गुना। तब भारत की सड़कों पर 70 लाख कारें दौड़ती थीं, आज हमारे पास 1.8 करोड़ से ज्यादा वाहन हैं। तब हमारे यहां चार लाख कंप्यूटर हुआ करते थे, आज चार करोड़ हैं। उस वक्त टेलीफोन कनेक्शन में गड़बड़ी आने पर लाइनमैन का इंतजार करने के अलावा कोई चारा न था, आज भारत में 58 करोड़ से ज्यादा मोबाइलधारक हैं।

आज भारत का ईश्वर बदल चुका है। वह राम या रहीम नहीं, लक्ष्मी है। मंदिर या मस्जिद बन जाए, इससे बड़ी कामना यह है कि अपना एक मकान हो। अयोध्या लगातार ऊपर की ओर गतिशील भारत को एक ऐसे अतीत की याद दिलाता है जिसे वह भूलना चाहता है- हिंसक विवादों और आर्थिक वंचना का अतीत। अब भारत अपने जीवन की बेहतरी की राह में कोई दखल नहीं चाहता, कोई ऐसी हिंसा नहीं चाहता जो उसके बैंक बैलेंस को कमजोर कर दे। आज भारत की विश्वदृष्टि ऐसी बन चुकी है जिसमें प्रवीण तोगड़िया और शाही इमाम दोनों ही दिक्कत पैदा करने वाले ऐसे दैत्याकार एजेंट हैं जिन्हें हाशिए पर डाल दिए जाने की जरूरत है।

जहां तक दिखता है, अच्छा दिखता है। लेकिन क्या यह नया भारतवास्तव में नब्बे के दशक के पूर्वार्ध के उन मनमुटावों से आगे बढ़ चुका है, जैसा कि लगातार टीवी स्टूडियो की बहसों में बताया जा रहा है? कुछ हफ्ते पहले हमने एक स्टिंग ऑपरेशन किया था इस बात की सच्चई जानने के लिए कि मुस्लिमों को शहरी मध्यवर्गीय रिहाइशों में किराए पर मकान पाने में दिक्कत आती है। छुपे हुए कैमरे ने उन गहरे जड़ जमाए पूर्वाग्रहों को पकड़ लिया जिन्हें राजनीतिक रूप से सटीक बयानों के पीछे दबा लिया जाता है।

आज भी एक युवा मुस्लिम को किराए पर मकान पाने में बड़ी चुनौती झेलनी पड़ती है। 1992 में जब मुस्लिम को आतंकी का पर्याय बताया जाता, तो इसे दुष्प्रचार समझ कर खारिज कर दिया जाता था। आज देश के भीतर और बाहर सिलसिलेवार आतंकी हमलों ने बहुसंख्यक आबादी के एक बड़े तबके को आश्वस्त कर दिया है कि मुस्लिमों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

इसी के साथ एक औसत मुस्लिम के भीतर ऐसी ग्रंथि पैदा हो गई है जिसने उसे यह मानने पर विवश कर दिया है कि समूची व्यवस्था उसके खिलाफ खड़ी है। किसी भी भारतीय शहर में चले जाएं, यह भौतिक और मनोवैज्ञानिक विभाजन साफ दिखता है। आज हिंदूऔर मुस्लिमरिहाइशों का फर्क साफ दिखता है, जिनके बीच चिंतित करने वाली संवादहीनता है। सांप्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता अब सिर्फ नारों तक सीमित रह गए हैं, जिनकी कोई वास्तविक प्रतिध्वनि विभाजित सड़कों के दोनों ओर सुनाई नहीं देती।

यही वजह है कि अयोध्या पर फैसले के बाद छाई शांति के लिए खुद को किसी भी तरह की शाबाशी देने की कवायद में हमें भारत की उस कड़वी सच्चई को नहीं भुलाना होगा जो दिमागों में गहरे पैबस्त है। भारत का बहुसंख्य समुदाय सड़कों पर हिंसा नहीं चाहता, लेकिन अयोध्या में भव्यराम मंदिर के विचार पर अपनी धार्मिक अस्मिता का आग्रह करने से भी उसे कोई परहेज नहीं। उसी तरह अल्पसंख्यक भले ही बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसरों के इच्छुक हों, लेकिन वे विवादित स्थल पर मस्जिद होने का अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं हैं।

ऐसे परिदृश्य में अयोध्या संकट का एक बिंदु तो बना हुआ है, लेकिन यह वास्तव में एक ऐसा ऐतिहासिकअवसर भी हमारे सामने पेश करता है जहां बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक समीकरण को दोबारा परिभाषित किया जा सके। मस्जिद गिराने के लिए असंवैधानिक तरीके अपनाने वाला संघ परिवार क्या अब किसी भी तरह की फतहबाज मुद्रा को अपनाए बगैर वास्तव में अल्पसंख्यकों तक अपना हाथ बढ़ाने को तैयार है?

क्या कांग्रेस अपनी वोट बैंक मानसिकता के चलते भ्रामक और विरोधाभासी संकेत देने के बजाय एक विश्वसनीय और निष्पक्ष पर्यवेक्षक की भूमिका अपना सकती है? और क्या मुस्लिम समूह स्थायी रूप से जख्मी होने की अपनी विभ्रमपूर्ण ग्रंथि से मुक्त हो सकेंगे? यह तभी हो सकेगा जब लोगों के दिमाग को भय और पूर्वाग्रह से मुक्त किया जा सकेगा। तभी भारत यह दावा कर सकेगा कि वह अयोध्या से काफी आगे आ चुका है। और तब संभव होगा कि हम मिलजुल कर आशा और समझौते के एक प्रतीक के रूप में एक मंदिर-मस्जिद परिसर का निर्माण कर सकें।

पुनश्च: अयोध्या पर फैसले के एक दिन बाद खबरों में राम की जगह रजनीकांत ने ले ली। अड़तालीस घंटे बाद इसकी जगह कॉमनवेल्थ खेलों के चमचमाते उद्घाटन समारोह ने ले ली। हफ्ते भर पहले हम, जो मंदिर में राम की आराधना कर रहे थे, अब क्रिकेट के अपने देवता वीवीएस लक्ष्मण के चरणों में सिर नवा रहे हैं। भारत अयोध्या से आगे बढ़ पाए या नहीं, 24 घंटे के खबरिया चैनल जरूर ऐसा कर रहे हैं।
(लेखक : आईबीएन-18 के एडिटर एन चीफ हैं)


(साभार दैनिक भास्कर, 8/10/2010)


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