Tuesday, October 26, 2010

फिर होगी राम की अग्निपरीक्षा

सच्चिदानंद जोशी 

अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता?

अयोध्या के ऐतिहासिक फैसले के बाद कुछ महानुभावों ने अपनी प्रतिक्रिया में इस बात पर खुशी जाहिर की कि अब तो अदालत से भी सिद्ध हो गया कि भगवान राम थे और वे हमारे आराध्य हैं।ऐसी ही खुशी का भाव कई अन्य के चेहरों पर था कि अदालत ने भगवान राम के जन्म होने के स्थान पर मुहर लगा दी है यानी परोक्ष रूप से मान लिया है कि भगवान राम थे। कुछ लोग तो इस सीमा तक विश्लेषण करने लगे कि भगवान राम, भगवान के रूप में न सही पर हमारे पूर्वज के रूप में तो सभी को स्वीकार्य होने चाहिए।

ऐसे ही और भी कई तर्क इस अदालत के फैसले के बरक्स किए जा सकते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने फैसला सुनाकर अपनी तरफ से एक लंबे और बहुप्रतीक्षित विवाद का सर्वमान्य हल देने का प्रयास किया है, लेकिन खेद का विषय है कि हम अपने तर्को के सहारे उसी फैसले के मद्देनजर नए विवादों को जन्म देने की कोशिश में लगे हैं।


यह अस्वाभाविक या असंभव भी नहीं है। जब भी आस्था को तर्को-वितर्को की कसौटी पर कसा जाएगा, गवाहों, सबूतों और अभिलेखों के आधार पर सिद्ध किया जाएगा, ऐसे विवाद उठने स्वाभाविक हैं। ऐसे ही विवाद हमारी समझदारी और सहिष्णुता की परीक्षा लेते हैं। परीक्षा धर्य और संयम की भी होती है। यही विवाद कालान्तर में उन्माद को जन्म देते हैं, जिसकी विभीषिका हमने सन १९९२ में देखी है।

प्रश्न यह है कि हम आस्था को अदालत की कसौटी पर कसने का प्रयास क्यों करते हैं? ईश्वर का अस्तित्व आस्था का प्रश्न है, तर्क और सबूतों का नहीं। हम में से कई लोग ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। कुछ ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते पर किसी वैश्विक ऊर्जा या शक्ति को मानते हैं, जो इस पूरे ब्रrांड के प्रपंच को संचालित कर रही है। ईश्वर का होना एक विश्वास है, तो ईश्वर का न होना भी एक विश्वास है। हिंदू धर्मावलंबियों में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का संदर्भ आता है। हरेक को अपनी आस्था के अनुरूप ईश्वर के स्वरूप को चुनने की स्वतंत्रता है।

इसके अलावा धर्म में ऋषि, मनीषियों, संतों, महात्माओं की एक विशाल परंपरा है, जिन्हें देवतुल्य मानकर उनकी उपासना की जाती है। इसके अलावा कई और प्रतीक भी हैं, जिन्हें देवतुल्य आदर प्राप्त है और उन्हें भी उसी तरह पूजा जाता है, आराधना की जाती है।

इन प्रतीकों में नदियां हैं, पर्वत हैं, पेड़ हैं और भी न जाने क्या-क्या है। लेकिन सभी अपनी-अपनी तरह से आस्था के स्थान हैं और श्रद्धालुओं के विश्वास के कारण दैवीय आभा से परिपूर्ण हैं। प्रश्न यह है कि क्या इन सभी के अस्तित्व को कसौटी पर कसने के लिए हमें हर बार अदालत का सहारा लेना पड़ेगा और क्या हर बार हम अदालत के फैसले के बाद ही अपनी आस्थाओं की पुष्टि कर पाएंगे। आस्था के अदालतों द्वारा प्रमाणीकरण का सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा?

अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता? यदि माननीय उच्च न्यायालय भगवान श्रीराम के जन्मस्थान के बारे में या उनके अस्तित्व के बारे में विपरीत फैसला देता या मौन रह जाता, तब हम हमारी आस्था के लिए कैसी प्रतिक्रिया देते, यह सोचने का विषय है।

क्या हम तब भगवान श्रीराम को मानना छोड़ देते या उन्हें अपना पूर्वज मानने से इनकार कर देते? क्या हम उन तर्को के सामने अपनी आस्था के प्रश्न को गौण मानकर छोड़ देते? क्या तब हमारी भगवान श्रीराम के प्रति आस्था में, उनके प्रति भक्ति भाव में कमी आती और तब क्या हम उनकी उपासना करना छोड़ देते? नहीं, हम ऐसा हरगिज नहीं कर पाते। तब फिर हम आस्था के विषय को अदालत की कसौटी पर ले जाकर माननीय अदालत के सामने भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न् क्यों छोड़ देते हैं? कई सौ वर्षो की गुलामी के काल में भी भारत पर शासन करने वालों ने भारतीयों की आस्था के विषय पर कभी कोई प्रश्नचिह्न् नहीं लगाया।

वे भारतीयों पर शासन करते रहे लेकिन भारतीयों की आस्था के साथ ही जीते रहे। खेद का विषय है कि आज हम आजाद भारत में अपने ही बनाए कानून के तहत आस्था पर सवाल उठा रहे हैं और अदालतों के माध्यम से उसे सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। आज जो लोग माननीय उच्च न्यायालय द्वारा भगवान श्रीराम का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर हर्ष व्यक्त कर रहे हैं, क्या उन्होंने कभी इस बात की पड़ताल की है कि इसके विपरीत फैसला आने पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती। हमारे जीवन में कुछ तो ऐसा होना चाहिए, जो तर्को-वितर्को से परे हो और जिसे गवाहों, सबूतों, दस्तावेजों के आधार पर नहीं, अपने भाव से तौला जा सके।

अब फिर कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कह रहे हैं। फिर तर्क-वितर्क होंगे। गवाह पेश होंगे, सबूत दिए जाएंगे, अभिलेख दिखाए जाएंगे। फिर से जमीन के हक की और उसके बंटवारे की बात होगी। यानी एक बार फिर प्रश्न उठेगा कि भगवान राम वहां जन्मे थे या नहीं, साथ ही यह भी कि भगवान राम थे भी या नहीं।

यानी एक बार फिर राम की अग्नि परीक्षा होगी। सीता मैया की अग्नि परीक्षा लेकर तुमने यह क्या अनर्थ कर दिया प्रभु कि इस कलियुग में तुम्हें बार-बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है।


(लेखक : साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)


(साभार : दैनिक भास्कर, 05/10/2010)

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