Tuesday, October 26, 2010

ये मंदिर भी ले लो ये मस्जिद भी ले लो


फिरोज बख्त अहमद


अयोध्या पर आने वाले फैसले को लेकर जनता थोड़ी सहमी हुई सी है क्योंकि धर्म को लेकर हम लोग अत्यंत भावुक हो जाते हैं और शराफत व कानून की हदों को पार करने में भी संकोच नहीं करते। 


बचपन में हमारे हिंदी के अध्यापक पढ़ाया करते थे कि संस्कृति, मानवता और नैतिक मूल्यों के मामले में भारत को सभी देशों का अगुआ माना जाता है। हम जगत गुरु हैं, हमने दुनिया को सभ्यता का पाठ पढ़ाया है। यह भी सुनते थे कि पश्चिमी देशों से सैलानी भारत में आध्यात्मिक सुख के लिए पधारते थे। दूसरे देशों को इंसानियत और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाला वह भारत आज न जाने कहां भटक गया है।

मुसलमानों के हितैषी
स्वतंत्रता प्राप्ति के 63 वर्ष बाद ऐसा लग रहा है कि हम फिर वहीं खड़े हैं जहां आजादी के पहले खड़े थे। ऐसा क्यों? भारत का आम आदमी आज भी सांप्रदायिक नहीं है मगर राजनीति की दुकानें चमकाने वाले उसे सांप्रदायिक खानों और गिरोहों में बांटते चले गए। तथ्य यही है कि इस देश में आज एक गरीब मुसलमान भी उतना ही पिछड़ा हुआ और पीड़ित है जितना कि एक हिंदू। मगर मुसलमानों के प्रति झूठी सहानुभूति प्रदर्शित करने वाले नेता लगातार यह जताने का प्रयास करते रहे हैं कि इस वर्ग की समस्याएं कहीं ज्यादा हैं। हां, इन नेताओं उन बढ़ी हुई समस्याओं का समाधान कभी नहीं दिया। आजादी की लड़ाई के समय देश में मिले-जुले समाज से जैसे नेता निकले, जिस तरह उन्होंने एकजुट हो कर भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी, वैसे नेता अब क्यों नहीं नजर आते?

हजार धागों से जुड़े रिश्ते
आप सोचिए कि हम कितने वर्षों से राम मंदिर-बाबरी मस्जिद प्रकरण में उलझे हुए हैं। क्या देश के सामने इसके अलावा और कोई मुद्दा नहीं है? मंदिर या मस्जिद की तुलना में कहीं अधिक आवश्यकता है देश में ग़रीबी, महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, आबादी, दहेज-दहन, बालश्रम जैसी समस्याओं के समाधान की। मौलाना वहीदुद्दीन खां कहते हैं कि उनकी 80 साल की जिंदगी में उनके ग़ैर-मुस्लिम रिश्तों पर सांप्रदायिक दंगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मस्जिद टूटी तो अयोध्या में टूटी। अयोध्या वाले जानें। हमें उससे क्या लेना-देना। बरसों हम साथ रहते चले आए हैं। एक दूजे के दुख-सुख, शादी-ब्याहों में शरीक होते रहते हैं, एक दूसरे से तिजारत करते हैं, तो हम हिंदुओं से दुश्मनी क्यों मोल लें! हमारा इसमें क्या स्वार्थ है?

विश्व के तमाम विकासशील देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जो धर्मनिरपेक्षता की घोषणा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में करता है और उस पर चलने की वजह से ही अन्य देशों से अपना भिन्न दर्जा रखता है। धर्मनिरपेक्षता भारत में सिर्फ एक बौद्धिक विचार , प्रबुद्ध चिंतन या किसी तार्किक बहस की अभिव्यक्ति नहीं है , बल्कि यह हमारे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का हिस्सा है। यह साम्राज्यवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष का एक अंग है। विश्व इतिहास के पृष्ठ पर विविधता से परिपूर्ण भारत को सामाजिक , सांस्कृतिक सम्मिश्रण का प्रतीक माना जाता है। इसी के चलते विश्व को अनेकता में एकता का संदेश प्राप्त हुआ। इस समृद्ध और बहुमूल्य पृष्ठभूमि में धर्म , क्षेत्र या जाति के नाम पर होने वाली हर हत्या भारतीय नागरिकता को अपमानित करती है। क्या हम महसूस करते हैं ऐसी हर हत्या के जरिए वास्तविक अर्थ में हम अपनी ही हत्या कर रहे हैं!


छोटी पहचानों में बंटते चले जाना भारतीय समाज की नियति बन गई है। लगभग सभी राज्यों के भीतर अलग राज्य के आंदोलन चल रहे हैं , जिनमें कुछ सफल हुए हैं तो कुछ बीच में अटके हुए हैं। पंजाब में अलगाववादी धारा जोर पकड़ कर धक्का खा चुकी है लेकिन कश्मीर में वह आज भी जोर मार रही है। इनमें कुछ के पीछे लोगों की वास्तविक आकांक्षाएं हो सकती हैं लेकिन कुछ को निश्चित रूप से देशी प्रतिक्त्रियावादी और विदेशी साम्राज्यवादी ताकतों की पुश्तपनाही हासिल है। इस समस्या के समाधान के लिए तत्ववादी कहते हैं कि भारतवर्ष का नाम बदल कर ' हिंदू राष्ट्र ' कर दिया जाए या फिर इसे एक ' हिंदू धर्म प्रधान राष्ट्र ' घोषित कर दिया जाए। मगर धार्मिक राज्यों अनुभव बताता है कि इससे भारत ' हिंदू राष्ट्र ', ' मुस्लिम राष्ट्र ', ' खालिस्तान ', ' ईसाई राष्ट्र ', ' द्रविड़ स्थान ' आदि में खंडित हो जाएगा।

भारतीय संस्कृति ने विश्व को नेतृत्व प्रदान किया है , कर रही है और आगे भी करती रहेगी क्योंकि इसमें और केवल इसी में यह शक्ति है कि वह इस्लाम को या अन्य किसी भी मजहब या उपासना पद्धति , संप्रदाय या पंथ को पूर्ण रूप से समर्थन दे सकती है। विश्व में न तो कोई ऐसी दूसरी संस्कृति है , पंथ है , धर्म है और न ही कोई चिंतन है जो हिंदुस्तानी परंपराओं जितना नर्म दिल हो। आज की विडंबना यह है कि सांप्रदायिकता को केवल धर्म नहीं बल्कि जाति , भाषा और क्षेत्र से भी जोड़ दिया गया है। उर्दू केवल मुसलमानों की ही क्यों समझी जाती है ? बांग्ला केवल बंगाल के लोगों की ही क्यों समझी जाती है ? क्या पंजाबी केवल सिखों की है ? क्या गोवा सिर्फ ईसाइयों का ही है और मथुरा मात्र हिंदुओं की धरोहर है ? हम अपने ही आधारों को आखिर क्यों कमजोर कर रहे हैं?

हिंद की ठंडी हवाएं
आज तो हमने मजहब को तनाव , हिंसा , लूटपाट , रक्तपात और दंगे - फसाद तक सिमटा दिया है लेकिन देर - सबेर इसको सहिष्णुता , एकता , भाईचारा , प्यार , समभाव और इंसानियत में ढालना होगा। हिंदू धर्म उदारता की मूरत है , सिख धर्म ने सभी धर्मों का सम्मान किया है और इस्लाम ने भी ' लकु़म दीनोकु़म वले यदीन !' ( तुम्हें तुम्हारा धर्म मुबारक , उन्हें उनका धर्म मुबारक!) कहा है। हिंद के बारे में हजरत मोहम्मद ने भी एक बार कहा था कि हिंद की ओर से ठंडी हवाएं आती हैं। भारत के इतिहास में धर्मनिरपेक्षता का भाव बहुत पहले से ही अवतरित हो गया था। यह सम्राट अशोक और शहंशाह अकबर की राजाज्ञाओं में भी विद्यमान था। हम मंदिर - मस्जिद के संक्रमण से बच सके , तभी सही मायनों में एक समृद्ध भारत की नींव पड़ेगी।
(लेखक : स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


(साभार : नवभारत टाइम्स, 23/09/2010)

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