Tuesday, October 26, 2010

कहीं बंद न हो जाए अवसर की खिड़की

आर. जगन्नाथन  

अयोध्या मामले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आपसी सुलह और सामंजस्य की जो राह खोली थी, फैसले के एक हफ्ते बाद धमर्निरपेक्षतावादी और संघ परिवार दोनों ही सुलह की जमीन को संकरा करते जा रहे हैं। इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है।

पहला, एक रचनात्मक निर्णय द्वारा हमें सांप्रदायिक समभाव का नया रास्ता सुझाते हुए तीन जजों वाली बेंच कानून के परे चली गइर्। दूसरा, देश बिलकुल शांत रहा क्योंकि वह अर्थव्यवस्था की नाव को डांवाडोल नहीं करना चाहता। तीसरा संघ परिवार का व्यवहार उकसाने और भड़काने वाला नहीं है, लेकिन मंदिर बनाने को लेकर उनके वक्तव्य बहुत उदार भी नहीं हैं।

धर्मनिरपेक्षतावादियों का व्यवहार सांप्रदायिकता के चूल्हे में कोयला झोंकने का काम कर रहा है, क्योंकि वे ऐसा निर्णय नहीं चाहते थे। धर्मनिरपेक्षतावादियों ने ही सबसे पहले शांति के वातावरण में खलल डाली। यहां तक कि पूरा निर्णय पढ़ने से पहले ही किसी पाखंडी ने इस निर्णय को पंचायत निर्णय का खिताब दे दिया।

सबसे ज्यादा बुरा तो यह हुआ कि तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों के एक गुट ने सहमत (सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट) के नाम से धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को क्षति पहुंचाने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय की भत्र्सना की। उन्होंने कहा कि यह हमारे धर्मनिरपेक्षतावादी ढांचे और न्याय व्यवस्था की प्रतिष्ठा पर लगा दूसरा बड़ा धक्का है।

कोई व्यक्ति पंचायत शब्द को हमारे न्यायाधीशों की बुद्धिमत्ता के रूप में भी देख सकता है। पंचायत सिर्फ इस आधार पर फैसला नहीं करती है कि कौन सही है और कौन गलत, बल्कि इस आधार पर करती है कि समुदाय के लिए क्या बेहतर और हितकारी है।

ऐसा नहीं है कि हमारे धर्मनिरपेक्षतावादी हमेशा कानून का कोना पकड़कर ही खड़े रहते हैं। जब उन्हें सहूलियत होती है तो वे वर्तमान संविधान के बाहर रचनात्मक निर्णय की भी मांग करते हैं, फिर चाहे वह नौकरी में आरक्षण का सवाल हो या नौकरी का मुद्दा।

निर्णय से पहले यही लोग संघ परिवार को उपदेश दे रहे थे कि क्यों उन्हें हर हाल में निर्णय का सम्मान करना चाहिए और कानून को अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। लेकिन वे ऐसा सिर्फ इसलिए कर रहे थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि निर्णय संघ परिवार के विरुद्ध होगा।

लेकिन अब वे ज्ञान बघार रहे हैं और न्याय पालिका के खिलाफ बोल रहे हैं। वे अल्पसंख्यकों की इस भावना को आग देने के साथ-साथ कि उन्हें शिकार बनाया गया है, ऐसा माहौल तैयार कर रहे हैं, जिसमें यह मामला सुप्रीम कोर्ट में कुछ साल और लटका रहेगा।

इससे नतीजा खुद--खुद साफ हो जाता है। इस निर्णय को रचनात्मक निर्णय इसलिए कहा गया है क्योंकि यह सिर्फ कानून की व्याख्या में ही सिमटकर खत्म नहीं हो जाता, बल्कि वादियों को एक मौका देने और उनके लिए नई राह खोलने के लिए कानून के भी परे जाता है। लेकिन उन्होंने इस काम को इतने त्रुटिपूर्ण ढंग से किया है कि इसी बिंदु पर आकर निर्णय कमजोर पड़ जाता है।

न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और एसयू खान ने पूर्वानुमानों के आधार पर निर्णय दिया कि चूंकि मस्जिद वहां पर नहीं है तो सबसे बेहतर यही है कि कानून को किनारे रखकर बहुमत की आस्था को स्वीकार्यता दी जाए।

लेकिन अगर मस्जिद वहां कायम होती तब भी क्या वे यही निर्णय दे सकते थे? तब उसका तीन हिस्सों में बंटवारा मुमकिन नहीं था क्योंकि तब कोई भी न्यायाधीश रामलला की मूर्ति रखवाने के लिए मस्जिद को गिराए जाने का आदेश नहीं देता। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तब भी कोर्ट संयुक्त स्वामित्व का निर्णय सुनाता।

सबसे बड़ी भूल या चूक यह है कि मस्जिद ढहाए जाने की बात बिलकुल सिरे से नदारद है। यही निर्णय मुसलमानों के लिए और स्वीकार्य हो जाता, यदि निर्णय में स्पष्ट तौर पर यह कहा गया होता कि मस्जिद को ढहाया जाना पूर्णत: गैरकानूनी था।

इलाहाबाद हाईकोर्ट सांप्रदायिक सौहाद्र्र और सामंजस्य बनाए रखने के लिए जो कुछ भी कर सकती थी, उसने वह किया। लेकिन इन सबके बावजूद गुजरते जा रहे हर एक दिन के साथ कोर्ट द्वारा उठाए गए इस बेहतरीन कदम को धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा चोट पहुंचाई जा रही है।

इसलिए संक्षेप में कहा जाए तो अब सारा दारोमदार और जिम्मेदारी भाजपा के कंधों पर है क्योंकि यदि सौहाद्र्र और सामंजस्य का यह कदम असफल हो जाता है तो इसमें बहुत-सी पार्टियों का अपना निजी हित भी जुड़ा है।

संघ परिवार के पास इन सबसे मुक्ति पाने के लिए दो रास्ते हैं। सबसे आसान रास्ता यह है कि वह यह स्वीकार कर ले कि मुसलमानों को दिए गए जमीने के तीसरे हिस्से में मस्जिद बन सकती है। अगर संघ इतनी ताकत और शिद्दत से यह बात कहे कि हर मुसलमान उसे सुन सके तो इससे विश्वास का सेतु बनने में मदद मिलेगी।

अगर ऐसा नहीं कहा गया तो मुसलमानों को यकीन हो जाएगा कि अतिवादी हिंदू समूह उन्हें अपमानित करने के लिए कमर कसे हैं। बल्कि इससे भी बेहतर तरीका तो यह होगा कि वे मस्जिद गिराए जाने के लिए विवेकपूर्ण ढंग से माफी मांगना शुरू करें।

लेकिन दुर्भाग्य से कट्टरपंथियों का स्वर और तीखा होता नजर आ रहा है। विहिप ने मस्जिद के लिए कोई हिस्सा छोड़े बगैर 67 एकड़ की पूरी विवादित जमीन पर मंदिर बनाने की बात शुरू कर दी है। एकतरफा तौर पर इसकी घोषणा नहीं की जा सकती।

यह वक्त है कि संघ परिवार, धर्मनिरपेक्षतावादी और मुसलमान, सभी अपने-अपने अतिवाद के छोरों से पीछे आएं। अवसर की एक खिड़की जो खुली थी, उसके बंद होने की शुरुआत हो गई है।

(लेखक : डीएनए के एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं)

(साभार : दैनिक भास्कर, 10/10/2010)

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